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श्री जैनवत कथासंग्रह
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परंतु कृपण होनेके कारण दान धर्ममें धन लगाना तो दूर ही रहे किंतु उल्टा दूसरेका धन हरण करनेको तत्पर रहती थी।
एक दिन कहींसे एक गृहत्यागी ब्रह्मचारी जो अत्यन्त हीन शरीर था सो भोजनके निमित्त उसके घर आ गये। उसे देख सेठानीने अनेक दुर्वचन कहकर निकाल दिया। यह कृपणा कहने लगी- अरे जा जा यहांसे निकल, यहां तो घरके बच्चे भूखों मर रहे हैं, फिर दान कहांसे करें? जो चाहे सो यही ही चला आता है।
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इतने हीमें उसका स्वामी सेठ भी आ गया और उसने अपनी स्त्रीकी हां में हां मिला दी। निदान कुछेक दिनोंमें यही हुआ, जैसी बनता जी दशा हो गई। अर्थात् उसका सब धन चला गया और वे यथार्थमें भूखों मरने लगे। अति तीव्र पापका फल कभी कभी प्रत्यक्ष ही दीख जाता है।
ये सेठ सेठानी आर्त ध्यानसे मरे सो एक ब्राह्मणके घर महिष (भैंस) के पुत्र ( पाडा - पाडी ) हुए । सो वहां भी भूख प्यासकी वेदनासे पीडित हो पानी पीनेके लिए एक सरोवरमें घुसे थे कि कीच ( कादव) में फंस गये और जब तडफडाकर मरणोन्मुख हो रहे थे, उसी दयाल श्रावकने आकर उन्हें णमोकार मंत्र सुनाया और मिष्ट शब्दोंमें संबोधन किया।
सो ये पाडापाडी वहांसे मरकर णमोकार मंत्रके प्रभावसे तुम मनुष्य भवको प्राप्त हुए, परंतु पूर्व संचित पापकर्मीका शेषश रह जानेसे अब तक दरिद्रताने तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ा है।
ऐ वत्स! यह दाम न देने और यति आदि महात्माओंसे घृणा करनेका फल हैं। इसलिए प्रत्येक गृहस्थको सदैव यथाशक्ति दान धर्ममें अवश्य ही प्रवर्तना चाहिये ।