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मुनि तथा श्रावकके धर्मोका उपदेश सुनकर सबने यथा शक्ति प्रतादिक लिये किसीने केवल सम्यक्त्व ही अंगीकार किया। इस प्रकार उपदेश सुननेके अनन्तर राजाने नम्रतापूर्वक पूछा
हे मुनिराज ! यह मेरी कन्या दुर्गन्धा किस पापके उदयसे ऐसी हुई है सो कृपाकर कहिये। तब श्री गुरुने उसके पूर्व भवोंका समस्त वृत्तांत मुनिकी निन्दादिका कह सुनाया, जिसको सुनकर राजा और कन्या सभीको पश्चाताप हुआ । निदान राजाने पूछा- प्रभो! इस पापसे छूटनेका कौनसा उपाय है? तब श्री गुरुने कहा
श्री सुगन्ध दशमी व्रत कथा
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समस्त धर्मोका मूल सम्यग्दर्शन हैं, सो अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिनभाषित धर्ममें श्रद्धा करके उनके सिवाय अन्य रागी -द्वेषी देव-भेषी गुरु, हिंसामय धर्मका परित्याग कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण इन पांच व्रतोंका अंगीकार करे और सुगन्ध दशमीका व्रत पालन करे जिससे अशुभ कर्मका क्षय होवे ।
इस व्रतकी विधि इस प्रकार है कि भादों सुदी दशमीके दिन चारों प्रकारके आहारोंका त्यागकर समस्त गृहारम्भका त्याग करे और परिग्रहका भी प्रमाणकर जिनालयमें जाकर श्री जिनेन्द्रकी भाव सहित अभिषेक पूर्वक पूजा करे। सामायिक स्वाध्याय करे। धर्म कथाके सिवाय अन्य विकथाओंका त्याग करे रात्रिमें भजनपूर्वक जागरण करे। पश्चात् दूसरे दिन चौवीस तीर्थंकरोंकी अभिषेकपूर्वक पूजा करके अतिथियों (मुनि व श्रावक) को भोजन कराकर आप पारणा करे। चारों प्रकार दान देथे। इस प्रकार दश वर्ष तक यह व्रत पालन कर पश्चात् उद्यापन करे।