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श्री जैनव्रत-कथासंग्रह
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१५ श्री सुगन्ध दशमी व्रत कथा
aratih पद प्रणमि, प्रणमि जिनेश्वर वान ।
कथा सुगन्ध दशमी तनी, कहूं परम सुखदान ॥ जम्बूद्वीपके विजयार्द्ध पर्वतकी उत्तरश्रेणीमें शिव मंदिर नामका एक नगर है। यहांका राजा प्रियंकर और रानी मनोरमा श्री सोमण आर्थिके एचर्य मदोन्मत्त हुए जीवन के दिन पूरे करते थे। धर्म किसे कहते हैं, वह उन्हें मालूम भी न था ।
एक समय सुगुप्त नामके मुनिराज कृश शरीर दिगम्बर मुद्रायुक्त आहारके निमित्त बस्तीमें आये उन्हें देखकर रानीने अत्यंत घृणापूर्वक उनकी निन्दा की और पानकी पिच मुनिपर यूंक दी। सो मुनि तो अन्तराय होनेके कारण बिना ही आहार लिये पीछे वनमें चले गये और कर्मोकी विचित्रता पर विचार कर समभाव धारण कर ध्यानमें निमग्न हो गये।
परंतु थोडे दिन पश्चात् रानी मरकर गधी हुई फिर सूकरी हुई, फिर कूकरी हुई, फिर वहांसे मरकर मगध देशके वसंततिलक नगरमें विजयसेन राजाकी रानी चित्रलेखाकी दुर्गन्धा नामकी कन्या हुई । सो इसके शरीरसे अत्यन्त दुर्गन्ध निकला करती थी।
एक समय राजा अपनी सभामें बैठा था कि धनपालने आकर समाचार दिया कि हे राजन! आपके नगरके वनमें सागरसेन नामके मुनिराज चतुर्विध संघ सहित पधारे हैं।
यह समाचार सुनकर राजा प्रजा सहित यन्दनाको गया और भक्तिपूर्वक नतमस्तक हो राजाने स्तुति वन्दना की। पश्चात्