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श्री निःशल्य अष्टमी व्रत कथा *************************
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मुनि-निन्दाके कारणसे इसको त्रिर्यंथ आयुका बन्ध हो गया और उसी जन्ममें उसको कोढ़ आदि अनेक व्याधियां भी उत्पन्न हो गयी। पश्चात् वह आयुके अन्तमें कष्टसे मरकर भैंस हुई फिर मरकर सूकरी हुई, फिर कुत्ती हुई, फिर धीवरनी हुई । सो मछली मारकर आजिविका करती हुई जीवनकाल पूरा करने लगी।
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एक दिन वटवृक्ष तले श्रीमुनि ध्यान लगाये तिष्ठे थे कि यह कुरूपा और दुष्ट चित्ता धीवरी जाल लिए हुए यहां आई और मछली पकड़नेके लिये नदीमें जाल डाला ।
यह देख श्री गुरुने उसे दुष्ट कार्यसे रोका और उसके भवांतर सुनाकर कहा कि तू पूर्व पापके फलसे ऐसी दुःखी हुई है और अब भी जो पाप करेगी तो तेरी अत्यन्त दुर्गति होगी। इस धीवरीको मुनि द्वारा अपने भवांतर सुनकर मुर्छा आ गई। पश्चात् सचेत हो प्रार्थना करने लगी- हे नाथ! इस पापसे छूटने का कोई उपाय हो तो बताइये ।
तब श्री गुरुने दया करके सम्यग्दर्शन व श्रावकोंके पांच अणुव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण ) का उपदेश दिया।
अष्टमूलगुण (पंच उदम्बर और तीन मकारोंका त्याग करना) धारण कराये, इस प्रकार वह धीवरी श्रावकके व्रत ग्रहण कर आयुके अंतमें समाधिमरण कर दक्षिण देशमें सुपारानगरके नन्द श्रेष्ठिके यहां नन्दा सेठानीके लक्ष्मीमती नामकी कन्या हुई । सो यद्यपि वह कन्या रूपवान तो थी तथापि अशुभ आचरणके कारण सभी उसकी निंदा करते थे।