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श्री चन्दनषष्ठी व्रत कथा [६३ ******************************** मूल सम्यग्दर्शनका उपदेश दिया कि-वस्तुस्वरूपका यथार्थ श्रद्धान हुए विना सब ज्ञान और चारित्र निष्फल है, और यह वस्तुस्यरूगगा जशान गार्थ देव कई सार्थ गुरु (निर्ग्रन्थ और) दयामयी (जिन प्रणीत) धर्मसे ही होता है।
अतएव प्रथम ही इनका परीक्षापूर्वक श्रद्धान होना आवश्यकीय है। तत्पश्चात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग ये पांच प्रत एकदेश पालन करे तथा इन्हींके यथोचित पालनार्थ सतशीलों (तीन गुणात व चार शिक्षाव्रतों) का भी पालन करें, इत्यादि उपदेश दिया, तब राजाने हाथ जोडकर पूछा-हे प्रभु! सनीके प्रति मेरा अधिक स्नेह होनेका क्या कारण है? यह सुनकर श्री गुरुदेवने कहा
राजा! सुनो, अवन्ती देशमें एक उज्जैन नामका नगर है वहां वीरसेन नामका राजा और रानी उसकी वीरमती थी। इसी नगरमें जिनदत्त नामक एक सेठ थे उसकी जयावती नाम सेठानीसे ईश्वरचंद्र नामका पुत्र भी था जो कि अपनी मामाकी पुत्री चंदनासे पाणिग्रहणका सुखसे कालक्षेप करता था।
एक समय सेठ जिनदत्त और सेठानी जयापती कुछ कारण पाकर दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर मुनि-आर्यिका हो गये। और सपके महात्म्यसे अपनी अपनी आयु पूर्ण कर स्वर्गमें देय-देवी हुए। और पिताका पद प्राप्त करके ईश्वरचंद सेठ भी वन्दना सहित सुखसे रहने लगा।
एक दिन अतिमुक्तक नामके मुनिराज मासोपचासके अनन्तर नगरमें पारणा निमित्त आये सो ईश्वरचंद्रने भक्ति सहित मुनिको पडगाह कर अपनी स्त्रीसे कहा कि श्री गुरुको आहार देओ। तब चन्दना बोली