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श्री जैननत-कथासंग्रह ********************************
स्थामी! मैं ऋतुयती हूँ, कैसे आहार दूं। ईश्वरचंद्रने कहा कि गुपधुप रहो, हल्ला मत करो, गुरुजी मासोपयासी हैं इसलिये शीघ पारणा कराओ।
चंदनाने पतिके वचनानुसार मुनिराजको आहार दे दिया सो श्री मुनिराज तो आहार करके यनमें चले गये और यहां तीन ही दिन पश्चात् इस गुप्त पापका उदय होनेसे पति पत्नी दोनों के शरीरमें गलित कृष्ट हो गया सो अत्यन्त दुःखी हुए और पाटसे हि बिताने जाने
एक दिन भाग्योदयसे श्रीमद मुनिराज संघ सहित उद्यानमें पधारे सो नगरके लोग यन्दनाको गये, और ईश्वरचंद्र भी अपनी भार्या सहवंदना को गया, सो भक्ति पूर्वक नमस्कार कर बैठा और धर्मोपदेश सुना पश्चात् पूछने लगा--
है दीनदयाल! हमारे यहां कौन पाप का उदय आया है कि जिससे यह विथा उत्पन्न हुई हैं। तब मुनिराजने कहातुमने गुप्त कपट कर पात्रदानके लोभसे अतिमुक्तक स्यामीको ऋतुवती होनेकी अवस्थामें भी आहार पान य मन, वचन, काय शुद्ध है कहकर आहार दिया है। अर्थात् तुमने अपवित्रता को भी पवित्र कहकर चारित्रका अपमान किया है सो इसी पापके कारणसे यह असातावेदनी कर्मका उदय आया है।
यह सुनकर उक्त दम्पति (सेठ सेठानीने) अपने अज्ञान कृत्य पर बहुत पश्चाताप किया और पूछा
प्रभु! अब कोई उपाय इस पापसे मुक्त होने का बताइये सब श्री गुरुने कहा-हे भद! सुनो-आचिन पदी षष्ठी (गुजराती भादों यदी ६) को चारो प्रकारके आहारका त्याग करके उपवास धारण करो तथा जिनालयमें जाकर पंचामृतसे अभिषेक