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श्री जैनव्रत-कथासंग्रह
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सुनकर भाव सहित धारण किया और भावना भाई सो अन्तसमय समाधिमरण कर अच्युतरवर्गमें इन्द्र इन्द्राणी हुए। वहांसे यह रानीका जीव (इन्द्राणी) चयकर यह तेरे श्रुतशालिनी नामकी कन्या हुई।
इस प्रकार गुरुनुअसे भकतर सुनकर उस कन्याने पुन. श्रुतस्कंध व्रत धारण किया और चारित्रके प्रभावसे विषयकषायों को अतिशय मंद किया, पश्चात् अंत समय में समाधिसे मरण कर स्त्रीलिंगको छेदकर इन्द्रपद प्राप्त किया और वहांके अनुपम सुख भोगकर अपरविदेह कुमुदवती देशके अशोकपुरमें पद्मनाभ राजाकी पट्टरानी जितपद्माके गर्भसे नयन्धर नाम तीर्थंकर हुआ। साथ ही चक्रवर्ती और कामदेवपदको भी सुशोभित किया। बहुत समय सक नीतिपूर्वक प्रजाका पालन किया । पश्चात् एक दिन इन्द्रधनुषको आकाशमें विलीन होते देख वैराग्य उत्पन्न हुआ। सो अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्य, अशुचित्य, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म वैराग्यको दृढ़ करनेवाली इन बारह भावनाओंका चिंतवन कर दीक्षा ग्रहण की, और कितनेक कालतक उत्कृष्ट संयम पालकर शुक्लध्यानके योगसे केवलज्ञान प्राप्त किया, तब देवोंने समवशरण की रचना की। इस प्रकार अनेक देशों में विहार करके भव्य जीवोंको वस्तुस्वरुपका उपदेश दिया और आयुके अन्य समयमें अघाति कर्मोको नाश करके अविनाशी सिद्धपद प्राप्त किया। इस प्रकार और भी जो नरनारी भाव सहित इस व्रतका पालन करेंगे तो अवश्य ही उत्तम पदको प्राप्त होवेंगे।
श्रुतशालिनी कन्या कियो, श्रुतस्कन्ध व्रत सार । 'दीप' कर्म सब नाश कर, लहो मोक्ष सुखकार ।।