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श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** उत्पन्न हुई सो कर्मयोगसे इन दोनों वर कन्या (धनभद्र और जिनमती) का पाणिग्रहण संस्कार भी हो गया। तब जिनमती अपने पतिके साथ ससुराल गई और गृहस्थीकी रीतिके अनुसार अपने पतिके साथ नाना प्रकारके सुख भोगने लगी, परंतु पूर्व कर्म संयोगसे जिनमती और इसकी सासमें अनानावना रहने लगा!
कुछ कालके अनन्तर धनपाल सेठ कालयश हुआ, तब जिनमतीने सासुसे कहा
माताजी! पतिका, क्रिया कर्म कीजिये और दानादिक शुभ कर्म करिये। इस पर सासुने ध्यान नहीं दिया, किन्तु उल्टा उसने बहुसे रीस करके पूजा होम आदिका सामान जो बहुने इकट्ठा कर रखा था रात्रिको उठकर भक्षण कर लिया सो तिल आदि पदार्थोके भक्षण करनेसे उसे अजीर्ण हो गया और यह उदीर्णा मरणसे अपने ही घरमें कोकिला (गृहगाधा) हुई।
जिनमती अपने पति धनभद्र सहित सुखर्स कालक्षेप करने लगी। उसकी सासु जो कोकिला हुई थी, सो हर समय अपने पूर्व वैरके कारण जिनमतीके उपर वीट (मल) कर दिया करती थी, इस कारण जिनमती बहुत दुःखी रहने लगी। एक दिन भाग्योदयसे श्री मुनिराज विहार करते हुए यहां आ गये सो जिनमती स्नान कर पवित्र वस्त्र पहिन कर श्री गुरुके दर्शन को गई। और भक्तिपूर्वक वंदना करके शांतिपूर्षक सत्यार्थ देव गुरु धर्मका व्याख्यान सुना| पश्चात् नतमस्तक होकर बोली।
हे प्रभु! यह कोकिला नामका न जाने कौन दृष्ट जीवधारी है, जो हमको निशदिन दु:ख देता है। तब श्री गुरुने कहा-यह तेरी साधु धनमती का जीव है। इसने पूर्वभवमें पूजा होम आदिका सामान नैवेद्य, तिल आदि भक्षण किया जिससे यह अजीर्ण रोगसे