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श्री काशी व्रत कथा
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तब मुनिराजने कहा- बेटी सुनो, यह जीव सदैव अपने ही पूर्वकृत कर्मो का शुभाशुभ फल भोगता हैं। तू प्रथम जन्ममें इसी नगरमें वेश्या थी तू रूपवान तो थी ही, परंतु गायन विद्यामें भी निपूण थी ।
एक समय सोमदत्त नामके मुनिराज यहां आये। यह सुनकर नगरलोक वंदनाको गये और बहुत उत्साहसे उत्सव किया सो जैसे सूर्यका प्रकाश उल्मुको अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार कुछ मिथ्यात्वी विधर्मी लोगोंने मुनिसे वादविवाद किया और अन्तमें हारकर वेश्या ( तुझे ही ) को मुनिके पास ठगनेके लिए (भ्रष्ट करनेको) भेजा तो तूने पूर्ण स्त्री चरित्र फैलाया, सब प्रकार रिझाया, शरीरका आलिंगन भी किया, परंतु जैसे सूर्य पर धूल फेकनेसे सूर्यका कुछ बिगड़ता ही नहीं किन्तु फैकनेवाले हीका उल्टा बिगाड होता है उसी प्रकार मुनिराज तो अचल मेरुवत स्थिर रहे और तू हार मानकर लौट आई।
इससे इन मिथ्यात्वी अधर्मियो को बड़ा दुःख हुआ, और तुझे भी बहुत पश्चाताप हुआ । अन्तमें तुझे कोढ़ हो गया सो दुःखित अवस्थामें मरकर तू चौथे नर्क गई। वहांसे आकर तू यहां वणिकके घर पुत्री हुई हैं। यहां भी तुझे सफेद कोढ़ हुआ था। सो पिंगल वैद्यने तुझे अच्छा किया और उसीसे तेरा पाणिग्रहण भी हुआ था ।
पश्चात् पूर्व पापके उदयसे चोरोंने उसे मार डाला और तू उससे बचकर यहां तक आई है। अब यदि तू कुछ धर्माचरण धारण करेगी, तो शीघ्र ही इस पापसे छूटेगी इसलिये सबसे प्रथम तू सम्यग्दर्शनको स्वीकार कर अर्थात् श्री अर्हन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरू और दयामयी जिनं भगवानके कहे हुए धर्मशास्त्रके सिवाय अन्य मिथ्या देव, गुरु और धर्मको छोड़ जीवादिक सात तत्त्वोंका