Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 59
________________ श्री रोहिणी व्रत कथा [५३ ******************************** परित्याग करके देशांतरको चला गया। निदान यह दुर्गन्धा अत्यन्त व्याकुल हुई और अपने पूर्व पापोंका फल भोगने लगी। इसी समय अमृतसेन नामके मुनिराज इसी नगरके वनमें विहार करते हुए आये। यह जानकर सकल नगरलोक यन्दनाको गये और धनमित्र भी अपनी दुर्गन्धा कन्या सहित वन्दनाको गया। सो धर्मोपदेश सुननेके अनन्तर उसने अपनी पुत्रीके भयांतर पूछे तब श्री गुरुने कहा सोश दे गिरनार पर्यत के निकट एका सार है! यहां भूपाल नामक राजा राज्य करता था। उसके सिन्धुमती नाम की रानी थी। एक समय वसन्तऋतुमें राजा रानी सहित वनक्रीडाको चला सो मार्गमें श्री मुनिराजको देखकर राजाने रानीसे कहा कि तुम घर जाकर श्री गुरुके आहारकी विधि लगाओ। ___ राजाज्ञासे यधपि रानी घर तो गई तथापि वनक्रीडा समय वियोग जनित संतापसे तप्त उस सनीने इस वियोगका सम्पूर्ण अपराध मुनिराजके माथे मढ़ दिया, और जब ये आहारको वस्तीमें आये तो पडगाहकर की तुम्बीका आहार दिया, जिससे मुनिराजके शरीरमें अत्यन्त वेदना उत्पन्न हो गई, और उन्होंने तत्काल प्राण त्याग कर दिये। नगरके लोग यह वार्ता सुनकर आये, और मुनिराजके मृतक शरीरकी अंतिम क्रिया कर रानीकी इस दृष्कृत्यकी निन्दा करते हुए निज निज स्थानको चले गये। राजाको भी इस दृष्कृत्यकी खबर लग गई तो उन्होंने रानीको तुरन्त ही नगर से बाहर निकाल दिया। इस पापसे रानीके शरीरमें उसी जन्ममें कोढ़ उत्पन्न हो गया, जिससे शरीर गल गलकर गिरने लगा तथा शीत, उष्ण

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