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श्री त्रिलोक तीज व्रत कथा
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(५) श्री त्रिलोक तीज व्रत कथा)
वन्दों श्री जिनदेव पद, बन्दं गुरु ग्णार।.
वन्दं माता सरस्वती, कथा कहूं हितकार।। जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र संबंधी कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नामक एक अति रमणीक नगर है। यहांका राजा कामदुक और रानी कमललोचना थी, और उनके विशाखदत्त नामका पुत्र था। उस राजाके यरदत्त नामका एक मंत्री था, जिसकी विशालाक्षी पत्नीसे विजयसुन्दरी नामक एक कन्या बहुत सुन्दर थी, जिसका पाणिग्रहण राजपुत्र विशाखदत्तने किया था। कितनेक दिन बाद राजा कामदुककी मृत्यु होने पर युवराज विशाखदत्त राजा हुआ।
एक दिन राजा अपने पिताके वियोगसे व्याकुल हो उदास बैठा था कि उसी समय उस ओर विहार करते हुए श्री ज्ञानसागर नामके मुनिवर एधारे। राजाने उनको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उच्चासन दिया, तब मुनिश्रीने धर्मवृद्धि कह आशीष दी और इस प्रकार संबोधन करने लगे--- ___ राजा! सुनो, यह काल (मृत्यु), सुर (देव), नर पशु आदि किसीको भी नहीं छोड़ता हैं। संसारमें जो उत्पन्न होता है सो नियमसे नाश होता है। ऐसी विनाशीक वस्तुके संयोग थियोगमें हर्ष विषाद ही क्या? यह तो पक्षियों के समान रैन (रात्री) बसेरा है। जहाजमें देश देशांतरके अनेक लोग आ मिलते हैं, परंतु अवधि पूरी होने पर सब अपनेर देशको चले जाते हैं।
इसी प्रकार ये जीय एक कुल (पंश-परिवार) में अनेक गतियोंसे आ आकर एकत्रित होते हैं और अपनी अपनी आयु पूर्ण कर संचित कर्मानुसार यथायोग्य गतियोंमें चले जाते हैं। किसीकी