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श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ********************************
(८ श्री श्रावण द्वादशी व्रत कथा) प्रणमूं श्री अरहन्त पद, प्रणमूं शारद माय।
श्रावण द्वादशी व्रत कथा, कहूं भव्य हितदाय।। मालया प्रांतमें पनायतीपुर नामक एक नगर था, यहाँका राजा नरब्रह्मा और रानी विजययभा थी। इनके शीलयती नामकी एक अति कुरूपा. यानी कुबडी कन्या उत्पन्न हुई। ज्यों ज्यों वह कन्या बडी होती थी त्यों त्यों माता-पिताको चिंता बढ़ती जाती थी।
एक दिन ये राजा रानी इस प्रकार चिंता कर रहे थे कि इस कुरुपा कन्यासे पाणिग्रहण कौन करेगा? कि पुण्य योगसे उन्हें यनमाली द्वारा यह समाचार मिला कि उधानमें श्रवणोत्तम नाम यतीश्वर देशदेशांतरोंमें विहार करते हुए आये हैं। सों राजा उत्साह सहित स्यजन और पुरजनोंको साथ लेकर श्री गुरुकी वन्दनाके लिये वनमें गया और तीन पदक्षिणा देकर प्रभुको नमस्कार करके यथायोग्य स्थानमें बैठा। ___ श्री गुरुने धर्मवृद्धि कहकर आशीर्वाद दिया और मुनि आवकके धर्मका उपदेश देकर निश्चय व्यवहार व रत्नत्रय धर्मका स्वरुप समझाया।
पश्चात् राजाने नतमस्तक हो पूछा-हे प्रभो! यह मेरी पुत्री किस पापके उदयसे ऐसी कुरुपा हुई हैं?
तब श्रीगुरुने कहा-अयंती देशमें पांडलपुर नामका नगर था। वहांका राजा संग्राममल्ल और रानी वसुन्धरा थी। उसी नगरमें देवशर्मा नामक पुरोहित और उसकी कालसुरी नामकी स्त्री थी। इस प्राह्मणके अत्यन्त रुपवान एक कपिला नामकी