Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 36
________________ ३० ] ***** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ************* ***** ( स्त्रीमात्रका अथवा स्वदार विना अन्य स्त्रियोंके साथ विषयमैथुन सेवनका त्याग ) और स्थपर आत्माओंका विषय कषाय उत्पन्न करानेवाले बाह्य आभ्यन्तर परिग्रहोका त्याग या प्रमाण (सम्पूर्ण परिग्रहांचा त्या था अपनी योग्य या शक्ति अनुसार आवश्यक वस्तुओंका प्रमाण करके अन्य समस्त पदार्थोसे ममत्वभाव त्याग करना, इसे लोभको रोकना भी कहते हैं), इस प्रकार ये पांच व्रत और इसकी रक्षार्थ सप्तशीलों ( ३ गुणव्रतों और ४ शिक्षाव्रतों) का पालन करें तथा उक्त शील और व्रतोंके अतीवारों (दोषों) को भी बचायें। इन व्रतोंके निर्दोष पालन करनेसे न तो राज्यदंड कभी होता है और न पंचदण्ड होता है और ऐसा व्रती पुरुष अपने सदाचारसे सबका आदर्श बन जाता है। इसके विरुद्ध सदाचारी जनोंको इस भयमें और परभयमें अनेक प्रकार दण्ड व दुःख सहने पड़ते हैं, ऐसा विचार करके इस व्रतोंमें निरन्तर दृढ होना चाहिये, यह शीलवतेष्यनतिचार भावना है। (४) मिथ्यात्वके उदयसे हिताहितका स्वरूप बिना जाने यह संसारी जीव सदैव अपने लिये सुख प्राप्तिकी इच्छासे विपरीत ही मार्ग ग्रहण कर लेता है, जिससे सुख मिलना तो दूर रहा, किन्तु उल्टा दुःखका सामना करना पड़ता हैं। इसलिये निरन्तर ज्ञान सम्पादन करना परमावश्यक हैं। क्योंकि जहां चर्मचक्षु काम नहीं दे सकते हैं वहां ज्ञानचक्षु ही काम देते हैं। ज्ञानी पुरुष नेत्रहीन होनेपर भी अज्ञानी आंख वालोसे अच्छा है। अज्ञानी न तो लौकिक कार्योंहीमें सफल मनोरथ होते हैं, और न परलौकिक ही कुछ साधन कर सकते हैं। ये ठौर ठौर ठगाये जाते है, और अपमानित होते हैं, इसलिये ज्ञान उपार्जन

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