Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 11
________________ जैन विद्या 5 बुढ़ापा आ गया इसका पता ही नहीं चलता । जीवन के इन तीनों रूपों की कोई निश्चित सीमारेखा नहीं खेची जा सकती केवल स्थूलरूप से ही उनका अनुभव किया जा सकता है । जीवन के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए बचपन, जवानी और बुढ़ापा इन तीनों अवस्थाओं का अध्ययन जरूरी है । भाषा के सम्बन्ध में भी यही बात है । भाषा - शास्त्र के अध्येतानों के लिए उसके विभिन्न रूपों / परिवर्तनों का अध्ययन एक अपरिहार्य आवश्यकता है, उसके बिना उनका भाषाशास्त्रीय ज्ञान अपूर्ण रहेगा, अधूरा रहेगा । इससे अपभ्रंश भाषा और उसके साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता स्वयंसिद्ध है । पभ्रंश भाषा की खोज का इतिहास नौ दशक से अधिक प्राचीन नहीं है । इसके विभिन्न अंगों, विशेषताओं, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक महत्त्व आदि की दृष्टि से इसके मूल्यांकन का प्रारम्भ तो इससे भी तीन-चार दशक पश्चात् हुआ । ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता गया इस भाषा की रचनाएं प्रकाश में प्राती गईं । फलतः विद्वानों का ध्यान इस और प्राकृष्ट हुआ । आज कई संस्थाएं एवं विद्वान् इस क्षेत्र में कार्यरत हैं किन्तु उनमें आवश्यक तालमेल के प्रभाव में जितने परिमारण में कार्य होना चाहिए उतना नहीं हुआ या हो पा रहा । जो कुछ कार्य अब तक हुआ है उसमें भी पर्याप्त अंशो में एक ही विषयवस्तु की एकाधिक बार पुनरावृत्ति भी हुई है । संस्थान इधर भी सचेष्ट है । वह इस क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और विद्वानों में सामंजस्य बैठाने के लिए प्रयत्नशील है ।. जिन विद्वानों ने अपनी कृतियाँ भेजने का अनुग्रह किया है हम उनके आभारी हैं । साथ में पत्रिका के सम्पादक डॉ. गोपीचन्द पाटनी ( संयोजक, जैनविद्या संस्थान समिति ) एवं प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन (मानद निदेशक, जैनविद्या संस्थान ), सहायक सम्पादक - श्री भंवरलाल पोल्याका एवं सुश्री प्रीति जैन आदि सम्पादन व प्रकाशन कार्य में प्रदत्त सहयोग के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। दी कपूर प्रेस के प्रोप्राइटर एवं उनके सहयोगी भी अच्छे 'कलात्मक मुद्ररण हेतु धन्यवादार्ह हैं । कपूरचन्द्र पाटनी प्रबन्ध-सम्पादक

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