Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 9
________________ जैन विद्या प्रथम भारतीय विद्वान् थे जिन्होंने इस कृति की घोर ध्यान दिया। उन्हें इस कृति की एक पाण्डुलिपि पाटण में मिली और उन्होंने इसके सम्पादन का कार्य " गायकवाड़ प्रोरियण्टल सीरीज" के अन्तर्गत प्रारम्भ किया परन्तु उनके निधन के कारण यह कार्य 1923 में डॉ. पाण्डुरंग दामोदर गुणे, पुणे द्वारा सम्पन्न किया गया । " भविसयत्त कहा " दिगम्बर जैन परम्परा का एक बड़ा प्रबन्ध काव्य है । धनपाल (अपभ्रंश - धनवाल ) स्वयं ने अपनी इस रचना की अन्तिम बाईसवीं सन्धि के नवें कड़वक के घत्ता में अपना परिचय देते हुए कहा है धक्कड़वरिवसे माएसर हो समुम्भविरण | धनसिरिहोवि सुरण विरइउ सरसइसंभविरण || 3 इससे ज्ञात होता है कि धनपाल " धनसिरि" नगर के एक धक्कड़ वाणिज्यिक परिवार में पैदा हु थे । याकोबी ने "भज्जिवि जेरण दियंबरि लाइउ" के आधार पर यह सिद्ध किया है कि धनपाल दिगम्बर जैन थे । हेमचन्द्र सम्राट् कुमारपाल के समय में बारहवीं शताब्दी हुए हैं। इनकी एवं धनपाल की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन से यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि धनपाल ईसा की 10वीं शताब्दी में हुए हैं। में अपभ्रंश भाषा के विशाल और महत्त्वपूर्ण परन्तु अज्ञात एवं अप्रकाशित साहित्य को प्रकाश में लाने की दृष्टि से "जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी" ने भी अपना योगदान देने का निश्चय किया एवं प्रपभ्रंश भाषा के अध्ययन के साथ-साथ अपनी शोध पत्रिका " जैन विद्या" के प्रथम तीन अंकों के माध्यम से स्वयंभू एवं पुष्पदन्त जैसे अपभ्रंश के महान् कवियों के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की परिचय सामग्री प्रकाशित की | अपभ्रंश के अन्य महाकवि धनपाल के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के बारे में परिचय देने हेतु यह चौथा अंक " धनपाल विशेषांक" पाठकों के हाथों में है । इस कार्य में पूर्व की भांति अमूल्य सहयोग देने के लिए संस्थान समिति अपने ही सदस्य डॉ. कमलचन्द सोगाणी, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, दर्शनशास्त्र विभाग, सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर के प्रति हार्दिक धन्यवाद अर्पित करती है । साथ में जिन-जिन विद्वानों ने अपनी रचनाएँ भेजकर एवं निदेशक -सम्पादक, सहायक सम्पादकों व अन्य सहयोगियों ने जो सहयोग प्रदान किया है उन सब के प्रति भी संस्थान समिति अत्यन्त आभारी है । डॉ. गोपीचन्द पाटनी संयोजक - जैन विद्या संस्थान समिति एवं सम्पादक "जैनविद्या"

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