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प्रकाशकीय
"जनविद्या" पत्रिका के अब तक तीन अंक प्रकाशित होकर पाठकों के पास पहुंच चुके हैं । इनमें से प्रथम अंक महाकवि स्वयंभू पर एवं द्वितीय तथा तृतीय अंक महाकवि पुष्पदन्त पर थे । इन तीनों ही अंकों में अपभ्रंश भाषा के उक्त महाकवियों के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर विभिन्न प्रायामों/दृष्टिकोणों से अपने अपने विषय के अधिकारी विद्वानों द्वारा शोध-खोज पूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया गया था अतः ये अंक सामान्य न होकर विशेषांक थे । इन विशेषांकों का जो स्वागत-सत्कार विद्वद्समाज एवं प्रबुद्ध जनता द्वारा हुआ उसने हमारे उत्साह को बढ़ाया है। उसी से प्रेरित होकर पत्रिका का यह चतुर्थ अंक भी अपभ्रंश के ही एक अन्य महाकवि "भविसयत्तकहा" के रचनाकार धनपाल धक्कड़ पर पूर्व प्रकाशित विशेषांकों की श्रृंखला में एक अन्य कड़ी के रूप में प्रस्तुत करते हुए हमारा हृदय प्रोत्फुल्ल है।
भारतीय विद्याओं में जैन विद्या का अपना एक महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है। बिना इसके अध्ययन मनन के भारतीय दर्शन, इतिहास, धर्म, संस्कृति, लोकजीवन आदि . का ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता । वह अधूरा/अपूर्ण ही रहेगा । भारतीय विद्या के अध्येताओं के लिए जनविद्या का अध्ययन एवं परिज्ञान अपरिहार्य है । जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु कृतसंकल्प होकर आगे बढ़ रहा है । "जैन विद्या" पत्रिका का प्रकाशन इस दिशा की ओर उसका एक कदम है। हमें हमारे साधनों की सीमा एवं कार्यक्षेत्र की विशालता का ज्ञान है किन्तु हमारे सहयोगियों का उत्साह अपने कर्तव्य के प्रति उनकी निष्ठा, लगन और कार्यक्षमता पर हमें पूरा विश्वास है जिसके बल पर हम आश्वस्त हैं कि हम हमारे गन्तव्य की ओर निरन्तर आगे बढ़ते रहेंगे, साधनों की सीमितता हमारे पथ का रोड़ा नहीं बनेगी, कार्यक्षेत्र की विशालता हमारे डगों को लड़खड़ायगी नहीं अपितु प्रतिपल हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी।
किसी भी विद्या का अध्ययन बिना उसके साहित्य का अध्ययन किये सम्भव नहीं । साहित्य के अध्ययन के लिए उस भाषा का ज्ञान आवश्यक है जिसमें वह निबद्ध है । भाषा का रूप स्थायी नहीं होता । वह मानवशरीर की भांति पल-प्रतिपल परिवर्तनशील होता है । यह बात अलग है कि परिवर्तन की यह गति इतनी मंद होती है कि हमें इसका अनुभव नहीं होता । जीवन में कब बचपन बीता और जवानी माई एवं कब जवानी बीत कर