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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता *17
थे, कभी-कभी मुक्ति का उपदेश देते थे, जो प्रचलित धर्म के अनुरूप नहीं होता था । नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभ पुत्र भरत की चर्चा प्रायः सभी हिन्दू पुराणों में आती है। मार्कण्डेय पुराण अ. 50, कूर्मपुराण अ. 41, अग्निपुराण अ. 10, वायुपुराण अ. 33, गरुण पुराण अ. 1, ब्रह्माण्ड पुराण अ. 14, वराह पुराण अ. 74, लिंगपुराण अ. 47, विष्णु पुराण 2 अ. 1 और स्कन्द पुराण कुमारखण्ड अ. 37 में ऋषभदेव का वर्णन आया है। इन सभी में ऋषभदेव को नाभि और मरुदेवी का पुत्र बताया गया है। ऋषभ से सौ पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से बड़े पुत्र भरत को राज्य देकर ऋषभदेव ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। सभी हिन्दू पुराण इसमें एकमत हैं। हिन्दु पुराणों का यह एकमत्य निसंदेह उल्लेखनीय है ।
वेद, पुराण, उपनिषदों में अनेक स्थलों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से विभिन्न तीर्थंकरों की स्तुति, महात्म्य विवेचन किया गया है। कहीं-कहीं वेद - विरोधी चरित्रों के रूप में भी इनका वर्णन मिलता है। जैसा कि ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है, कि ये वातरशन मुनि वैदिक रीति-रिवाजों, यज्ञ-यागादि के विरोधी हैं तथा वेद को नहीं मानते तथा भिन्न प्रकार के व्रतों का पालन करते हैं, जिनसे आर्य अपरिचित हैं। इस आशय के उल्लेख मद्भागवत् में भी मिलते हैं ।
ब्राह्मण परम्परा और उसमें भी विशेष रूप से वैष्णव परम्परा का बहुमान्य और सर्वत्र अतिप्रसिद्ध ग्रन्थ हैं, श्रीमद्भागवत, जिसे भागवत पुराण भी कहते हैं । इसमें भगवान् ऋषभदेव का जो वर्णन मिलता है, वह बहुत कुछ जैन परम्परा के वर्णन के अनुकूल ही है। इसमें लिखा है कि
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'जब ब्रह्मा ने देखा, कि मनुष्य की संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभू मनु और सतरूपा को उत्पन्न किया, उनके प्रियव्रत नामका लड़का हुआ, प्रियव्रत का पुत्र अग्नींध्र हुआ, अग्नींध्र के घर नाभि का जन्म हुआ । नाभि ने मरुदेवी से विवाह किया और उनसे ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव ने इन्द्र के द्वारा दी गई जयन्ति नाम की भार्या से सौ पुत्र उत्पन्न किए और बड़े पुत्र का राज्याभिषेक करके संन्यास ले लिया। उस समय केवल शरीर मात्र उनके पास था और वे दिगम्बर वेश में विचरण करते थे, मौन रहते थे। कोई डराए, मारे, ऊपर थूके, पत्थर फेंके, मूत्र - विष्टा फेंके तो उन सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे। यह शरीर असत् पदार्थों का घर है, ऐसा समझकर अहंकारममकार का त्याग करके अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव के समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उनका क्रिया-कर्म बड़ा भयानक हो गया था । शरीरादिक का सुख छोड़कर उन्होंने 'आजगर' व्रत ले लिया था । इस प्रकार केवल्यपति भगवान् ऋषभदेव निरन्तर परम आनन्द का अनुभव करते हुए भ्रमण करते-करते कोंक, बैंक, कुटक, दक्षिण कर्नाटक देशों में अपनी इच्छा से पहुँचे और कुटिका चल पर्वत के उपवन में उन्मत्त के समान नग्न होकर विचरने लगे। जंगल में बांसों की रगड़ से आग