Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ 16 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन द्वारा अभिहित होता रहा है। वैदिक काल से अरण्यक काल तक वह वातरशन मुनि या वातरशन श्रमणों के नाम से पहचाना गया है। ऋग्वेद में 'वातरशन' मुनि का उल्लेख है : 916 'मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला । " तैत्तिरीय अरण्यक में केतु, अरुण और वातरशन ऋषियों की स्तुति की गई है। 'केतवो अरुणासश्च ऋषयो वातरशनाः प्रतिष्ठां । शतधा हि समाहितासो सहस्त्रधायसम ॥' 917 श्रीमद् भागवत के अनुसार भी वातरशन श्रमणों के धर्म का प्रवर्तन भगवान ऋषभदेव ने किया।" व्रात्य शब्द भी वातरशन शब्द का सहचारी है । वातरशन मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे। क्योंकि प्रारम्भ में वैदिक परम्परा में संन्यास और मुनिपद का स्थान नहीं था । जैन धर्म का दूसरा नाम आर्हत भी अत्यधिक विश्रुत रहा है। जो अर्हत के उपासक थे वे 'आर्हत' कहलाते थे । वे वेद और ब्राह्मणों को नहीं मानते थे। वे यज्ञों में विश्वास न कर कर्म-बन्ध और कर्म निर्जरा को मानते थे । प्रस्तुत आर्हत धर्म को पद्मपुराण में सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है।" इस धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव हैं। ऋग्वेद में अर्हन् को विश्व की रक्षा करने वाला सर्वश्रेष्ठ कहा है।" आचार्य श्रुतकेवली भद्रबाहु ने कल्पसूत्र में भगवान अरिष्टनेमि व अन्य तीर्थंकरों का विशेषण अर्हत् प्रयोग किया है । पद्मपुराण एवं विष्णुपुराण में जैन धर्म के लिए आर्हत धर्म का प्रयोग मिलता है। आर्हत शब्द का प्रचलन भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थकाल तक अधिक रहा । महावीर युगीन साहित्य में मुख्य रूप से निर्ग्रथ शब्द प्रयुक्त हुआ है।" 24 दशवैकालिक,” उत्तराध्ययन, और सूत्रकृतांग” आदि आगमों में "जिन शासन, जिन - मार्ग, जिनवचन" शब्दों का प्रयोग हुआ है, लेकिन जैन धर्म शब्द का प्रयोग आगम ग्रन्थों में नहीं मिलता। सर्वप्रथम जैन शब्द का प्रयोग जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यक भाष्य में देखने को मिलता है।" उसके पश्चात् के साहित्य में जैन धर्म शब्द का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। मत्स्यपुराण" तथा देवी भागवत में भी जिन धर्म का वर्णन मिलता है। तात्पर्य यह है, कि देशकाल के अनुसार शब्द बदलते रहे हैं, किंतु शब्दों के बदलने मात्र से जैन धर्म को आर्वाचीन नहीं माना जा सकता। परम्परा की दृष्टि से यह प्रमाण वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध हैं, कि वेद पूर्व भी जैन दर्शन विद्यमान रहा है । ऋग्वेद के दसवें मण्डल में प्रजाप ने परमेष्ठी, हिरण्य गर्भ और वातरशन (नग्न) मुनियों का उल्लेख है ।" इन उपमाओ का उल्लेख ऋषभदेव के सम्बन्ध में भी किया गया है, अतः वेद विरुद्ध नियमादि का पालन करने वाले तथा यज्ञ विरोधी नग्न श्रमणों की परम्परा का अस्तित्व ऋग्वेद काल तक जाता है। ये श्रमण ध्यान मग्न रहते

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 ... 516