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14* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन समय निग्रंथ सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित संप्रदाय नहीं था, यही मत पिटकों में भी मिलता है।
मज्झिम निकाय" के महासिंहनाद सुत्त में बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवन का वर्णन करते हुए तप के वे चार प्रकार बताए, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया था। वे चार तप हैं - 1. तपस्विता, 2. रुक्षता, 3. जुगुप्सा तथा 4. प्रविविक्तता। 1. तपस्विता का अर्थ है - नग्न रहना, हाथ में ही भिक्षा भोजन करना, केश,
दाढ़ी के बालों को उखाड़ना, कंटकाकीर्ण स्थल पर शयन करना। 2. रुक्षता का अर्थ है - शरीर पर मैल धारण करना या स्नान न करना। अपने
मैल को न अपने हाथ से परिमार्जित करना और न दूसरों से परिमार्जित
कराना। 3. जुगुप्सा का अर्थ है - जल की बूंद पर तक दया करना। 4. प्रविविक्तता का अर्थ है - वनों में अकेले रहना।
ये चारों तप निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में आचरित होते थे। भगवान महावीर ने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने अनुयायियों के लिए भी इसका विधान किया था। किंतु बुद्ध के दीक्षा लेने के समय महावीर के निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं हुआ था, अतः अवश्य ही वह निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय महावीर के पूर्वज भगवान पार्श्वनाथ का था, जिसके उक्त चार तपों को बुद्ध ने धारण किया था, किंतु बाद में उनका परित्याग कर दिया था। मज्झिम निकाय के उक्त सत्र से यह स्पष्ट है।
बौद्ध शास्त्रों में सामंजफल सुत्त नाम के प्राचीन सिंहली शास्त्र में भी निगंठनातपुत्र व उनके सिद्धांतों का जो विवेचन मिलता है, उससे निगंठों व जैनों का अभेद सिद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त अंगुत्तरनिकाय में भी ऐसा उल्लेख मिलता है, कि निगंठ-नातपुत्र सर्व वस्तु जानता है और देखता है, संपूर्ण ज्ञान और दर्शन का वह दावा करता है, तपश्चर्या से कर्मों का नाश और क्रिया से नवीन कर्मों का अवरोध वह सिखाता है, जब कर्म समाप्त हो जाते हैं, तब सब कुछ समाप्त हो जाता है।"
सामंजफलसुत्त में नातपुत्त के सिद्धांतों का उल्लेख इस प्रकार है - चातुर्यामसंवर-संवुतो। इसको डॉ. याकोबी जैन पारिभाषिक शब्द 'चातुर्याम' सम्बन्धी उल्लेख मानते हैं। उनके अनुसार महावीर के पुरोगामी पार्श्वनाथ के सिद्धांत के लिए इसी शब्द का उपयोग किया गया है। ताकि महावीर के सुधारे हुए सिद्धांत पंचयाम धर्म से यह पृथक् हो जाए।
___ पार्श्वनाथ के मूल धर्म में उनके अनुयायियों के लिए चार महाव्रत नियत थे और वे इस प्रकार थे - अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य) और अपरिग्रह (अनावश्यक वस्तुओं का त्याग)। महावीर जिस समाज में विचरते थे, उसमें पार्श्वनाथ के अपरिग्रह व्रत से पूर्णतः पृथक् ‘ब्रह्मचर्य याने शीलवत' को स्वतन्त्र व्रत रूप से बढ़ाना परम