Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 23
________________ अक्षरावली-अग्निकाय मेन पुरागकोश।५ तक एक-एक अक्षर की वृद्धि से प्राप्त ज्ञान । हपु० १०.१२, २१ दे० श्रुतज्ञान अक्षरावलि अक्षरमाला। स्वर और व्यंजन के भेद से इसके दो भेद होते हैं। संयुक्त अक्षर और बीजाक्षर इसी से निर्मित होते है। अकार से हकार पर्यन्त वर्ण, विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय वे सभी इसमें होते हैं। मपु० १६.१०४-१०८ दे० अक्षरविद्या अक्षीणद्धि-एक ऋद्धि । इसके प्रभाव से अन्न अक्षीण हो जाता है । मपु० ११.८८ अक्षीण-पुष्पद्धि-एक ऋद्धि । इसके प्रभाव से पुष्प-सम्पदा में न्यूनता नहीं आतो । मपु० ८.१४९ अक्षीण-महानस-एक ऋद्धि । इसके प्रभाव से रसोईघर में भोजन अक्षीण हो जाता है । मपु० ३६.१५५ अक्षीण संवास-एक ऋद्धि । इसके प्रभाव से निवास व्यवस्था अक्षोण रहती है । मपु० ३६.१५५ अक्षोभ्य-(१) विजयाई पर्वत की उत्तरश्रेणी का अड़तालीसवाँ नगर। मपु० १९.८५, ८७ (२) मथुरा के यादववंशी नृप अन्धकवृष्णि और उसकी रानी सुभद्रा का दूसरा पुत्र । समुद्र विजय इसका बड़ा भाई और स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव छोटे भाई थे । कुन्ती और माद्री इसकी दो बहिनें थीं। हपु० १८.१२-१५ इसका अपरनाम अक्षुभ्य था। हपु० ३१.१३० उद्धव, अम्भोधि, जलधि, वामदेव और दृढव्रत इसके पांच पुत्र थे । हपु० ४८.४५ (३) समवसरण-भूमि के पश्चिमी द्वार के आठ नामों में पाँचाँ नाम । पु० ५७.५९ दे० आस्थानमण्डल (४) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.११४ अक्षौहिणी-सेना के ९ भेदों में एक भेद । यह सेना सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न होती है। यह दस अनीकिनी सेनाओं के बराबर होती है। इसमें इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर रथ और इतने ही हाथी, एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास पदाति और पैसठ हजार छ: सौ दस अश्वारोही सैनिक होते हैं । पपु० ५६.३-१३, पापु० १८.१७२-१७३ हरिवंशपुराण में अक्षौहिणी के नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ अश्वारोही और नौ सौ करोड़ पदाति सैनिक बताये गये हैं। हपु० ५०.७५-७६ अखिलज्योति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०९ अगण्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३७ अगति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ अगन्धन-सिंहपुर नगर के राजा सिंहसेन के मंत्री श्रीभूति का जीव-इस नाम का एक सर्प । हप० २७.२०-४२ श्रीभूति को योनि में यह सत्यघोष के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ था। धरोहर के रूप में अपने पास रखे हुए भद्रमित्र नामक वणिक् के रत्नों को लौटाने से यह लोभवश मुकर गया था। भद्रमित्र वृक्ष पर चढ़कर नित्य रोता और रत्न रख लिये जाने की बात करता था। इसका रुदत सुनकर रानी रामदत्ता ने सत्य जानना चाहा । इसके लिए उसने अपने पति सिंहसेन की आज्ञा से इतक्रीड़ा की शरण ली। जुए में रानी ने सत्यघोष का यज्ञोपवीत और अंगूठी जीत ली। इसके पश्चात् एक कुशल सेविका को जुए में विजित दोनों वस्तुएँ देकर सत्यघोष की पत्नी से रत्नों का पिटारा मंगा लिया और भद्रमित्र को रत्न लौटा दिये । सत्यघोष को दण्डित किया गया जिससे वह आर्तध्यान से मरकर राजा के भाण्डागार में ही इस नाम का सर्प हुआ। मपु० ५९.१४६-१७७, हपु २७.२०-४२ अगण्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३७ अगति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ अगम्यात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८८ अगत-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का पश्चिम दिशावती देश । हप. ११.७१-७३ अगर्भवास-गर्भवास से रहित होने के लिए “अगर्भवासाय नमः" इस पीठिकामन्त्र का जप किया जाता है । मपु० ४०.१६ अगस्त्य-शरद् में उदित होनेवाला नक्षत्र । हपु० ३.२ अगाह्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का नाम । मपु० २५.१४९ अगुरुलघुत्व-सिद्ध के आठ गुणों में एक गुण । यह कर्म तथा नोकर्म के विनाश से उत्पन्न होता है । मपु० २०.२२२-२२३, ४२. १०४ दे० सिद्ध . अगृहीतेत्वरिकागमन-ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचारों में चौथा अती चार-स्वेच्छाचारिणी और अगृहीत कुलटा स्त्रियों के पास जाना । हपु० ५८.१७-४१७५ अगोचर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८७ अग्नि-(१) यह तीन प्रकार की होती है-गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिण । ये तीनों अग्नियाँ अग्निकुमार देवों के मुकुट से उत्पन्न होतो है । तीर्थकर, गणधर और सामान्य केवली के अन्तिम महोत्सव में पूजा का अंग होकर पवित्र हो जाती हैं। इनकी पृथक्-पृथक् कुण्डों में स्थापना की जाती है। गार्हपत्याग्नि नैवेद्य के पकाने में, आह्वनीय धूप खेने में और दक्षिणाग्नि दीप जलाने में विनियोजित होती है । ये अग्नियाँ संस्कार विहीन पुरुषों को देय नहीं होती। मपु० ४०.८२-८८ (२) क्रोधाग्नि में क्षमा की, कामाग्नि में वैराग्य की और उदराग्नि में अनशन की आहुति दी जाती है । ऋषि, यति, मुनि, अनगार ऐसी आहुतियाँ देकर आत्मयज्ञ करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं। मपु० ६७.२०२-२०३ — (३) शरीर में भी तीन प्रकार की अग्नि होती है-ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि, और जठराग्नि । पपु० ११.२४८ अग्निकाय-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच प्रकार के स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों में एक प्रकार के जीव । अपरनाम तेजस्काय । मपु० १७.२२-२३ हपु० ३.१२०-१२१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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