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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[ भाग 4
है। इसके समरूप यक्ष और यक्षी की प्रतिमाएं भी उसी प्रस्तर से निर्मित हैं, विशेषकर यक्षी की मूर्ति भव्य रूप से शिल्पांकित कृति है।
मण्डप के दक्षिणी-पूर्वी कोने से सीढ़ियों का चढ़ाव है जो दूसरे तल के मंदिर के सामने की खुली छत पर पहुँचता है। प्रथम तल की अपेक्षा इस हर्म्य के चौक का परिमाण छोटा है और उसकी चारों पार्श्वभित्तियों के बाहरी भागों पर अर्ध-स्तंभ हैं। दक्षिणी, पश्चिमी और उत्तरी भित्तियों के दो-दो केंद्रीय अर्ध-स्तंभों के बीच के अंतराल में उथले देवकोष्ठ हैं जिनमें चूने से निर्मित तीर्थंकरों की खड्गासन प्रतिमाएँ उथली रेखांकन शैली में अंकित हैं । निचले तल के समान ही यहाँ के सरदल पर भी हंसों की शिल्पाकृतियाँ हैं, केवल कोनों पर सिंहों का अंकन है। कपोत पर कर्णकूटों और भद्रशालाओं का हार है। कूटों और शालाओं के मुखभागों पर तीर्थंकर-प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं जबकि क्षुद्र-नासिकानों पर भक्त नर-नारियों की प्रतिमाएँ हैं। उत्तर और दक्षिण की अंतराल-भित्तियों के ऊपर के सरदल पर दो अर्धवृत्ताकार नीड़ अथवा पंजर हैं जिनके आगे-पीछे पूर्ण गज-पृष्ठाकृति का अंकन है। उनके सामने के तोरणों के देवकोष्ठों में तीर्थंकर-प्रतिमाएँ ध्यान-मुद्रा में अंकित हैं। अंतराल के आयताकार क्षेत्र के पीछे मंदिर के प्रवेश-द्वार पर सादी चौखट जड़ी हुई है जबकि गर्भगृह में सेलखड़ी से निर्मित पार्श्वनाथ की परवर्ती प्रतिमा है।
तीसरा तल चारों ओर से आवृत, कम ऊंचे छोटे चौक के रूप में है जिसका उठान दूसरे तल के हार के ऊपर हुआ है। इसमें सामान्य अर्ध-स्तंभ और तीर्थंकर-प्रतिमाओं से युक्त देवकोष्ठ हैं। यह वास्तविक ग्रीवा के उठान में उपग्रीवा का कार्य करता है और इस प्रकार विमान की कुल ऊँचाई की उसके आधार के समानुपातिक सौंदर्य के अनुसार अभिवृद्धि करता है, अन्यथा वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह बौनी और असुंदर रचना मात्र रह जाती। इसके ऊपर अष्टकोण शिखर से आच्छादित अष्टकोण ग्रीवा है जो कम्बदहल्लि की अपेक्षा कम सुंदर है। ग्रीवा-शिखर के पाठों कोणों पर महानासिकाएं प्रक्षिप्त हैं जिनके चारों ओर के देवकोष्ठों में तीर्थंकर-प्रतिमाएं तथा कोनों के देवकोष्ठों में भक्त नर-नारियों की प्रतिमाएँ अंकित हैं। सबसे ऊपर की स्तूपी एक ही शिलाखण्ड से निर्मित नहीं है, वरन संश्लिष्ट है। यह चार भागों में संपूर्ण ग्रेनाइट की रचना है, जबकि सबसे ऊपर की स्तूपिका काली सेलखड़ी की है और कलश से संयुक्त कर दी गयी है।
चामुण्डराय-बस्ती के आधार-शिलालेख के अनुसार मंदिर का निर्माण चामुण्डराय के द्वारा सन् १८२ ई० में कराया गया था। ऊपरी तल के गर्भगृह में पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना सन् ९६५ में करायी गयी थी जैसाकि उक्त प्रतिमा के पादपीठ पर मंत्रि-पुत्र के अभिलेख से विदित होता है । इससे ज्ञात होता है कि पिता और पुत्र के द्वारा मंदिर के निर्माण में तेरह वर्ष लगे। सामने के अग्र-मण्डप का निर्माण संभवतः होयसल विष्णवर्धन के समय किया गया।
इस पहाड़ी के प्राकार के दक्षिणी प्रवेश-द्वार के भीतर एक उत्तंग स्तंभ आठ हाथियों के आधार के ऊपर बनाया गया है। प्राकार के भीतर कई मंदिर हैं । स्तंभ के शिखर पर ब्रह्मदेव की पूर्वोन्मुख
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