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अध्याय 29
दक्षिणापथ
सामान्य विशेषताएं
दक्षिणापथ के तेरहवीं शती से पूर्व के सामाजिक-धार्मिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने के उपरांत जैन धर्म को इस क्षेत्र के उत्तरी और पूर्वी भागों में शक्तिसंपन्न वीरशैव मत के और दक्षिणी भाग में सात्विक श्रीवैष्णव मत के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। चौदहवीं शती के प्रारंभ से भारत के अन्य धर्मों के साथ इस धर्म को भी इस्लाम के कारण आघात पहुँचा । इस्लाम उन मुस्लिम शासकों का धर्म था जो तुंगभद्रा से उत्तर के क्षेत्र के अधिपति बन गये थे। कहा जाता है, इस ज्वार पर अधिकार पाने के लिए १३४६ ई० में हरिहर और बुक्क नामक दो भाइयों ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। इस राजघराने के सदस्य यद्यपि स्वयं ब्राह्मण्य धर्म का पालन करते थे तथापि उन्होंने जैन धर्म तथा अन्य धर्मों को सदा समर्थन दिया। इस तथ्य की अत्यंत सार्थक पुष्टि बुक्क-प्रथम के उस प्रसिद्ध अभिलेख से होती है जिसमें वृत्तांत है कि एक बार १३६८ ई० में जब श्रीवैष्णवों और जैनों में गंभीर विवाद छिड़ गया तब स्वयं सम्राट् बुक्क-प्रथम ने ही उन दोनों की मध्यस्थता की और उनकी स्थायी संधि करा दी। इस प्रकार साम्राज्य से समर्थन प्राप्त करके जैनों ने अपने क्रिया-कलाप को--क्रमशः साहित्य और ललित कलाओं--पूर्व-परिचित क्षेत्र में विस्तृत किया । विजयनगर-साम्राज्य-काल में आदि से अंत तक ब्राह्मण्य धर्म के अनुयायियों ने साहित्यिक कृतियों का सृजन किया और सर्जनात्मक कलाओं का विकास किया; उनके साथ ही साथ जैन धर्म के अनुयायियों ने भी वैसी ही अत्यंत भव्य कृतियों की सर्जना की। इस प्रकार की कृतियों की संख्या दक्षिणापथ के कन्नड भाषी भागों और पश्चिमी समुद्र-तट के क्षेत्रों में उन भागों से अधिक है जो दक्षिणापथ के आंध्र प्रदेश या दक्षिणी महाराष्ट्र के अंतर्गत आते हैं। वास्तव में, इस धर्म को उत्तरी कर्नाटक में मुस्लिमों की यातनाओं का सामना करना पड़ा, इसका प्रमाण लगभग सोलहवीं शती के धारवाड़ जिले में स्थित मुलगण्ड के एक कन्नड अभिलेख से मिलता है जिसमें वृत्तांत है कि जब ललितकीत्ति के शिष्य जैन गुरु सहस्रकीत्ति पार्श्वनाथ-जिनालय में थे कि उसमें मुस्लिमों ने आग लगा दी और वे निर्विकल्प भाव से बैठे-बैठे भस्मसात् हो गये। यह घटना वास्तव में रोमांचकारी थी किन्तु इस गुरु ने भी अपने
1 साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, 15, ऋ० 695.
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