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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
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की चित्रकला के उदाहरण मूडबिद्री के मंदिर के पाण्डुलिपि-भण्डारों में सुरक्षित हैं। ये चित्र इस भट्टारक-पीठ की ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के चित्रों के रूप में तथा उपासना-उपादानों के रूप में हैं। पाण्डलिपियों में षट्खण्डागम की वीरसेन-कृत टीकाएँ हैं जो धवला, जयधवला, महाधवला या महाबंध के नाम से जाने जाते हैं। दिगंबर-परंपरा के अनुसार धवला, जयधवला, और महाधवला में जैनों के मूल बारह अंगों का वह भाग सुरक्षित है जो लुप्त होने से बच सका है। षट्खण्डागम की टीका धवला के आरंभ में उसकी रचना के विषय में एक कथानक दिया गया है। महावीर के उपदेशों को उनके गणधर इंद्रभूति गौतम ने बारह अंगों में व्यवस्थित किया। ये अंग मौखिक परंपरा के रूप में अगली पीढ़ियों में प्रचलित रहे लेकिन ये इस सीमा तक उपेक्षित रहे कि उन्हें पुनरुज्जीवित करने की आवश्यकता पड़ी। गुणधर (ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी) तथा धरसेन (प्रथम शताब्दी) नामक दो प्राचार्यों ने महावीर के उपदेशों को, जो उस समय जितने भी और जिस रूप में भी बच रहे थे, संगृहीत कर क्रमशः कषायपाहुड तथा षट्खण्डागम नामक अपने जैन-कर्म-दर्शन के ग्रंथों में लिपिबद्ध कर व्यवस्थित किया। इस शृंखला में अंतिम ग्रंथ धवला है जो कि षट्खण्डागम की टीका है। इस टीका के लेखक वीरसेन ने कषाय-पाहुड नामक ग्रंथ का भी भाष्य लिखा था जो जयधवला के नाम से जाना जाता है । धवला का रचना-काल शक-संवत् ८१६ (सन् ८९४) है जो राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष-प्रथम के राज्यकाल का समय था। इस लेख के लेखक का ध्यान इसकी सचित्र पाण्डुलिपियों की ओर कुछ वर्ष पहले मान्य मित्र श्री छोटेलाल जैन ने उस समय प्राकृष्ट किया था जबकि जनवरी १९६४ में राष्ट्रीय संग्रहालय में आयोजित सचित्र पाण्डुलिपियों की प्रदर्शनी के लिए उनके संग्रह से प्रदर्शनी हेतु पाण्डुलिपियाँ प्राप्त की गयी थीं।
सौभाग्य से, इन पाण्डुलिपियों की मूडबिद्री स्थित प्राचीन ग्रंथ-भण्डारों में भली-भाँति सुरक्षा की गयी है । ये पाण्डुलिपियाँ पुरालिपि के आधार पर स्पष्टतः होयसलकालीन हैं जो लिथिक तथा विष्णुवर्द्धन-कालीन ताम्रपट-अभिलेख से घनिष्ठ रूप से मिलती-जुलती हैं। इनके चित्र चमकदार रंगों में अंकित हैं जो हमें होयसल-काल के चित्रकारों की कला-दक्षता का परिचय देते हैं। इन पाण्डुलिपियों के हस्तलेख का बेलुर-मंदिर से प्राप्त धातुपत्रों पर पुष्पाकार रेखांकनों सहित लेख से अत्यंत निकट का साम्य है। ये चित्र विष्णवर्द्धन और उसकी जैन धर्मानुयायी पत्नी शांतला के समकालीन होने चाहिए।
ये चित्र जो असामान्य रूप से बड़े ताड़पत्र पर अंकित हैं, मूलपाठ के हस्तलेख की सुंदरता तथा मूलपाठ को चित्रांकित करनेवाले उसके साथ के चित्रों, इन दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। इसके दो पत्रों पर अंकित चित्र सबसे प्रारंभिक काल के हैं जिनके अक्षर कुछ मोटे हैं, इनका विन्यास अन्यों की अपेक्षा कुछ अधिक कोमल हैं। रंग का प्रभाव कुछ ऐसा कोमल है कि वह अन्य रंगों के रंग-विरोधाभास के प्रभाव को कम कर देता है तथा उनपर प्राकृत्ति-रेखाएँ एक सुखद अनुपात में खींची गयी हैं। धवला की यह पाण्डुलिपि सन् १११३ की है। इसपर सुपार्श्वनाथ की यक्षी काली अंकित है लेकिन वह अपने नाम के विपरीत गौर वर्ण की अंकित की गयी है। उसका वाहन वृषभ भी
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