Book Title: Jain Kala evam Sthapatya Part 2
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 366
________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 को अत्यंत साधारण रूप में अंकित किया गया है क्योंकि इस विषय-वस्तु को स्वयं में अधिक साज-सज्जाअलंकरण की आवश्यकता नहीं है । इसके विपरीत, कुछ ऐसी विषय-वस्तुएं भी हैं जो अत्यंत मोहक हैं, जैसे मातंग यक्ष की विषय-वस्तु । मातंग यक्ष को अपने वाहन हाथी सहित दिखाया गया है। हाथी अपने पूर्ण वैभव के साथ बैठा हुआ है, जिसका सिर गौरव से ऊपर उठा है। समूचा चित्र दो वृक्षों के मध्य में कलात्मक ढंग से संयोजित है । यह संयोजन परंपरागत पद्धति के अनुकरण के कारण उल्लेखनीय है। यक्षी श्रुतदेवी का अपने वाहन मयूर सहित तथा महामानसी यक्षी का अपने वाहन हंस सहित और अजित यक्ष का अपने वाहन कच्छप सहित अंकन होयसल-चित्रकारों की तूलिका का उल्लासकारी कलात्मक सृजन है। पक्षियों की लहरदार पूंछों तथा प्राकृति-सूचक रेखाओं का अंकन चित्रकारों की महान् कलात्मक अभिरुचि तथा सृजनशील प्रतिभा का परिचय देता है। इन पाण्डुलिपियों की बाह्य रेखाओं तक को भी अत्यंत आकर्षणपूर्ण ढंग से चित्रित किया गया है। यद्यपि इन अनेक ताड़पत्रों पर पत्र-पुष्पों की अनेकानेक परिकल्पनाएँ चित्रित की गयी हैं लेकिन इनमें कहीं भी कोई पुनरावृत्ति नहीं है। अभिकल्पनाओं के उच्चतम स्तर की दृष्टि से ये ताड़पत्र विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करते हैं। दक्षिण-वर्ती दक्षिणापथ में सन् १३३५ ई० में हरिहर ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो इस भू-भाग के दक्षिण भाग में एक प्रभुता-संपन्न शक्ति के रूप में उभरा। इस राजवंश के भी उत्तराधिकारियों ने जैन धर्म के साथ अन्य धर्मों का भी अत्यंत निष्ठा के साथ पल्लवन किया। यहाँ से उपलब्ध एक अभिलेख में यह तथ्य विशेष है कि अच्युतराय ने किस प्रकार परस्परविरोधी तथा झगड़नेवाले जैन और वैष्णव धर्म के धर्म-प्रमुखों को एक साथ राज-दरबार में बुलाया तथा अत्यंत सम्मानप्रद समझौता कराकर दोनों धर्मों में परस्पर सद्भाव, आदर-भाव और मैत्री स्थापित करायी। इस वंश के तेरहवीं शताब्दी से प्रारंभ होनेवाले साम्राज्य के चार सौ वर्ष लंबे शासनकाल में स्थापत्यीय निर्माण तथा मंदिरों को चित्र एवं मूर्तियों से सजाने की गतिविधियाँ अपने चरम रूप में क्रियाशील रहीं। इस शासनकाल में मंदिरों, भवनों तथा संभ्रांत नागरिकों के गृहों में अंकित विविधरंगी भित्ति-चित्र कितने आकर्षक और भारतीयों के लिए ही नहीं अपितु विदेशी यात्रियों के लिए भी कितने प्रभावपूर्ण थे इसका पता विदेशी यात्रियों द्वारा किये गये उल्लेखों से प्राप्त होता है, जिनमें प्रसिद्ध पुर्तगाली यात्री पाएस का यात्रा-विवरण उल्लेखनीय है, जिसने विजयनगर राज्य की राजधानी की यात्रा की थी। उसने अपने यात्रा-वृत्तांत में भित्ति-चित्रों की कला की भूरि-भूरि सराहना की है। इसमें अतिशयोक्ति नहीं, जैसा कि सुविदित है, सम्राट कृष्णदेवराय स्वयं एक कवि तथा कला-प्रेमी, कला और साहित्य का महान् रक्षक था । संभावना से भी अधिक गोपुरों के निर्माण कराने का श्रेय उसे दिया जाता है । यह श्रेय उसे ठीक उसी प्रकार प्राप्त है जिस प्रकार किंवदंतियों के अनुसार सम्राट अशोक को ८४ हजार स्तूपों के निर्माण कराने का श्रेय प्राप्त है । विशाल विजयनगर साम्राज्य में सर्वत्र पाये जानेवाले भव्य गोपुरों एवं मण्डपों की छतों तथा मंदिरों की भित्तियों पर विजयनगर-कला-शैली में अंकित असंख्य भित्ति-चित्रों में जैन विषय-वस्तु के 394 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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