Book Title: Jain Kala evam Sthapatya Part 2
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 329
________________ अध्याय 29] बक्षिणापथ उनके नीचे दोनों ओर मूर्तियों की संयोजना है जिनमें से कुछ तीर्थंकरों की भी हैं । प्रवेश-द्वार के सरदल पर तीर्थंकर की एक आसीन मूर्ति है ।। स्तंभ स्तंभ, मान-स्तंभ और ब्रह्मदेव-स्तंभ स्थापत्य के अंगों की द्वितीय श्रेणी में आते हैं। स्तंभ मंदिर का एक संपूर्ण अंग होता है किन्तु उसकी अपनी एक वैयक्तिकता भी है और यही उसका आकर्षण है। कनारा के स्तंभों के विषय में स्मिथ ने लिखा है : 'संपूर्ण भारतीय कला में कनारा के इन स्तंभों के समकक्ष कदाचित् ही ऐसा कुछ हो जो इतना रस-विभोर करता हो' । इतना ही आनंद-विभोर होकर फर्ग्यसन ने लिखा है : 'अनेक मंदिरों के अंगों के रूप में निर्मित ये स्तंभ कनारा की जैन शैली के था पत्य में भव्यतम न भी हों पर सर्वाधिक आकर्षक और सरस रचनाएँ अवश्य हैं। मान-स्तंभ एक उत्तुंग स्तंभ होता है, उसके शीर्ष पर एक लघु मण्डप होता है, जिसमें स्थापित एक चौमुख पर चारों ओर एक-एक तीर्थंकर-मृति उत्कीर्ण होती है। ब्रह्मदेव-स्तंभों के उक्त मण्डप-सदश शीर्ष-भाग पर ब्रह्मदेव की मूर्ति होती है । प्रतीत होता है कि जैन मंदिरों में मान-स्तंभ की संयोजना आवश्यक अंग के रूप में होती रही । ब्रह्मदेव-स्तंभों का निर्माण कार्कल (चित्र २५४ क) और वेणूर में गोम्मट-मूर्तियों के सम्मुख हुआ । गुरुवायनकेरी में एक सुंदर मान-स्तंभ विद्यमान है। मूडबिद्री में साढ़े सोलह मीटर ऊँचा एक ऐसा स्तंभ है (चित्र २५४ ख) जो इन दोनों वर्गों में नहीं आता । इसके विषय में स्मिथ ने वॉलहाउस का उद्धरण ठीक ही दिया है : 'संपूर्ण शीर्ष और मण्डप ऐसी मनोज्ञ और अलंकृत पाषाणकृतियाँ हैं जो आलोक-चकित करती हैं। इन सुंदर स्तंभों की राजोचित गरिमा अनन्य-अपराजेय है, इनकी आनुपातिक संयोजना और आसपास के दृश्यों का आलेखन सभी दृष्टियों से परिपूर्ण है और इनके अलंकरणों की प्रचुरता सदा निर्दोष मानी जायेगी । निस्संदेह, जैनों ने उत्तर-मध्यकाल में दक्षिणापथ में इन अति सुंदर स्तंभों का निर्माण करके भारतीय स्थापत्य के समृद्ध दिव्य भण्डार में उल्लेखनीय संवर्धन किया है। गोम्मट-मूर्तियां प्रथम तीर्थंकर के सुपुत्र मुनि गोम्मट की कार्कल और वेणूर में स्थापित विशालकार मूर्तियां भी उदाहरण के योग्य मनोरम कलाकृतियाँ हैं। श्रवणबेलगोला की मूर्ति की भांति ये मूर्तियाँ भी 1 वही, पृ 67-68, यहाँ वर्ष 1334 का शक-संवत के रूप में उल्लेख है. 2 स्मिथ (वी ए) हिस्ट्री प्रॉफ फाइन मार्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन. 1911. प्रॉक्सफोर्ड. पृ 22. 3 फग्यूसन, वही, पृ 80-81. 4 वही, पृ 81. 5 स्मिथ, वही, पृ 22, रेखाचित्र 6. 379 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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