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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
[ भाग 6
महावीर की मूर्ति पर होता है, किन्तु पादपीठ मूर्ति से अलग है अत: यह निश्चित नहीं कि वह उसी मति का है या नहीं । अभिलेख में तीर्थंकर के नाम का उल्लेख नहीं है। मति पर्यकासन में है और उसके वक्षस्थल पर श्रीवत्स-लांछन है। मूर्ति के स्कंधों पर कदाचित् लहराती केशराशि दिखाई गयी है जो आदिनाथ की विशेषता है । मूर्ति के पीछे प्रभावली का सुंदर शिल्पांकन है, उसके ऊपर एक सुंदर मकर-तोरण है जिसके दोनों स्तंभों पर विविध अलंकरण हैं। प्रभावली पर इकहत्तर तीर्थंकर-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं जिनमें से एक अोर सुपार्श्व की और दूसरी ओर पार्श्वनाथ की खड़ी मूर्तियाँ और छत्रत्रय के नीचे चार तीर्थंकरों की प्रासीन मूर्तियाँ हैं। दोनों छोरों पर एक-एक वृक्ष का आलेखन है । जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, पादपीठ पर गोमुख यक्ष, चक्रेश्वरी (?), सिंह और गुच्छकों के अंकन हैं। प्रस्तुत कालावधि की प्रारंभिक कृति के रूप में यह मूर्ति कुछ ऐसी शैली में है जो पूर्वकाल से ही अपने प्रभाव और सुंदरता के लिए विख्यात रही है।
पार्श्वनाथ की यक्षी पद्मावती की एक धातु की और एक पाषाण की मूर्तियाँ बहुत बाद की कृतियाँ हैं और कला के ह्रास की सूचक हैं। फिर भी, इनके मूर्तिकार अपनी कृतियों में शांति और दिव्यता का भाव उभारने में असफल नहीं हुए, जो उनकी मुख-मुद्रा के अंकन से व्यक्त होते हैं। पद्मावती के हाथों की वस्तुएँ और वाहन वही प्रतीत होते हैं जो तिरुपत्तिक्कुण्रम् की पद्मावती की खड़ी कांस्य-मूर्ति में है ।। पद्मावती की पाषाण-मूर्ति पर सर्प की पंच-फणावली है और वाहन के रूप में हंस है। उसके ऊपर के हाथ में अंकुश और पाश तथा नीचे के हाथों में कमल और फल हैं। यहाँ एक अनुपम धातु-कृति है-चौमुखी (नंदीश्वर) । यह पंद्रहवीं-सोलहवीं शती की हो सकती है। यह एक धातु-निर्मित लघु-मंदिर (मण्डप) है जिसके चारों ओर तोरण-द्वारों के अंकन हैं।
नंदीश्वर (?) (कदाचित् सहस्रबिंब) का एक सुंदर शिल्पांकन लक्ष्मेश्वर की शंख-बस्ती में है जिसपर एक हजार चौदह लघु और एक पूर्णाकार तीर्थंकर-मूर्ति उत्कीर्ण हैं। पार्श्वनाथ की एक पाषाण-मूति तेरहवीं या चौदहवीं शती का एक सुंदर उदाहरण है।
अांध्र प्रदेश के विभिन्न स्थानों में तीर्थंकरों की अलग-अलग मूर्तियां अधिकांशत: पाषाण द्वारा निर्मित हई, उनमें से बहुत-सी १३०० ई० से पूर्व की मानी गयी हैं। तथापि, कजूलूर की तीर्थकर की एक आसीन मूर्ति विजयनगर काल की मूर्तिकला का एक सुंदर उदाहरण मानी जा सकती है। विस्तृत वक्षस्थल, उन्नत स्कंधों और सुगठित भुजाओं से तीर्थकर के बल और वीर्य की संदर अभिव्यक्ति होती है। शरीर का ऊर्ध्व और निम्न भाग भी शिल्पांकन की दृष्टि से निर्दोष बन पड़ा है। पुडुर से प्राप्त वर्धमान और पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ भी उसी काल की मानी जा सकती हैं, क्योंकि शैली की दष्टि से
1 रामचन्द्रन (टी एन) तिरुप्परुत्तिक्कुण्रम् एण्ड इट्स टेम्पल्स, बुलेटिन अॉफ द मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियम, न्यू सीरिज,
जनरल सेक्शन, 1,3, 1934, मद्रास, चित्र 33,3. 2 पंचमुखी, वही, पृ 94, चित्र 9 (क एवं ख). 3 मूर्ति (गोपालकृष्ण) वही, इस अनुच्छेद में चर्चित सभी कृतियों के चित्र उस पुस्तक में प्रकाशित हैं.
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