Book Title: Jain Kala evam Sthapatya Part 2
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 313
________________ मध्याय 29] दक्षिणापथ मंगायि-बस्ती इस काल का प्रारंभिक मंदिर है, वह कदाचित् १३२५ ई० में बना। इस मंदिर में उत्कीर्ण अभिलेखों के अनुसार इसे बेलुगुल के मंगायि ने बनवाया था। यह एक साधारण मंदिर है, इसमें गर्भगृह, शुकनासा और नवरंग हैं। इसमें पार्श्वनाथ की एक खड्गासन प्रतिमा है, उसके पादपीठ पर उत्कीर्ण अभिलेख में वृत्तांत है कि इसका दान पण्डिताचार्य की शिष्या और विजयनगर के देवरायप्रथम (राज्यारोहण वर्ष १४०६ ई.) की रानी भीमादेवी ने किया था। इस स्थान पर इस काल का एक और लघु मंदिर है--सिद्धर-बस्ती, (१३९८ ई०) जिसमें लगभग एक मीटर ऊँची एक आसीन सिद्ध-मूर्ति विराजमान है। मूर्ति के दोनों ओर एक-एक स्तंभ है, उनपर अभिलेख उत्कीर्ण है, शिल्पांकन उच्च कोटि का है और उनके शीर्ष-भाग की संयोजना शिखराकार है। एक उत्तरकालीन मंदिर है चेन्नण्ण-बस्ती (१६७३ ई०)। उसमें गर्भगृह, मुख-मण्डप और बरामदा हैं और चंद्रनाथ की एक आसीन मूर्ति विद्यमान है। उसके समक्ष एक मान-स्तंभ भी है। दक्षिण कनारा के स्मारक दक्षिण कनारा में पश्चिमी समुद्र-तट पर जैन धर्म लगभग चौदहवीं शती से प्रचलित हुआ। उत्तरकालीन शतियों में यह धर्म अत्यधिक प्रभावशाली हो गया और उसके अनुयायियों ने साहित्य के अतिरिक्त ललित कलानों की समृद्धि में भी बहुत योगदान किया। कार्कल, मूडबिद्री और वेणर जो जैन धर्म के महान केंद्र हैं वे इसी काल में बने । इन स्थानों पर अनेकानेक जैन बस्तियों का होना इस तथ्य के साक्षी हैं। इन स्थानों में से जिन-काशी के नाम से विख्यात मुडबिद्री, वेणपुर (वंशपुर) और व्रतपुर के कुछ जैन मंदिर इस काल के स्थापत्य के अत्यंत महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । इनमें भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है होस-वसदि या त्रिभुवन-चूडामणि-वसदि जिसे सहस्र-स्तंभ-वसदि कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें अनेक स्तंभों, की संयोजना है (चित्र २४६ ख)। यहाँ की वसदियों में यह सुंदरतम है। इसका निर्माण १४२६ ई० में विजयनगर-सम्राट् देवराय-द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। दो प्राकारों मध्य निर्मित इस चंद्रनाथ-वसदि के समक्ष एक उत्तुंग मान-स्तंभ और एक अलंकृत प्रवेश-द्वार है। सबसे ऊपर का तल काष्ठ-निर्मित है। इस पूर्वाभिमुख मंदिर के गर्भगृह के समक्ष तीर्थकर-मण्डप गड्डिग-मण्डप और चित्र-मण्डप नामक तीन मण्डपों की संयोजना है। इसके सामने इससे अलग एक मंदिर और है जिसे भैरादेवी-मण्डप (चित्र २५० क, ख) कहते हैं; इसका निर्माण १४५१-५२ में विजयनगर-सम्राट् मल्लिकार्जुन इम्मडि देवराय (१४४६-६७) के शासनकाल में गोपण प्रोडेयर ने कराया था। इस मंदिर की छत की, वरन् उत्तर और दक्षिण कनारा जिलों के कार्कल तथा अन्य स्थानों के मंदिरों की छतों की भी एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उनके बरामदा के ऊपर के छदितट का ढाल पीछे की ओर है जिसे आवास-गृहों की घास की छत के अनुकरण पर बना माना जाता है। इस स्थान के अन्य मंदिरों के अतिरिक्त इस मंदिर का भी बहिर्भाग ब्राह्मण्य मंदिरों के बहिर्भागों की अपेक्षा अधिक समतल है। 'उनके स्तंभ पाषाण के होकर भी काष्ठ-निर्मित-से लगते हैं क्योंकि 1 सालेतोर, वही, 352. 375 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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