________________
मध्याय 19 ]
बक्षिण भारत मूर्ति है। स्तंभ पर उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार इसका निर्माण गंग नरेश मारसिंह की सन् १७४ में हई मृत्यु के स्मारक के रूप में किया गया।
दक्षिण कर्नाटक और तमिलनाडु की मूर्तिकला
श्रवणबेलगोला की इंद्रगिरि पहाड़ी पर गोम्मटेश्वर की विशाल प्रतिमा (चित्र १३१) मूर्तिकला में गंग राजाओं की और, वास्तव में, भारत के अन्य किसी भी राजवंश की महत्तम उपलब्धि है। पहाड़ी की १४० मीटर ऊँची चोटी पर स्थित यह मूर्ति चारों ओर से पर्याप्त दूरी से ही दिखाई देती है। इसे पहाड़ी की चोटी के ऊपर प्रक्षिप्त ग्रेनाइट की चट्टान को काटकर बनाया गया है जिसकी एकरूपता और पत्थर की संदर रवेदार उकेरने निश्चय ही मूर्तिकार को व्यापक रूप से संतुष्ट किया होगा। प्रतिमा के सिर से जाँघों तक अंग-निर्माण के लिए चट्टान के अवांछित अंशों को आगे, पीछे और पार्श्व से' हटाने में कलाकार की प्रतिभा श्रेष्ठता की चरम सीमा पर जा पहुंची है। जाँघों से नीचे के भाग, टाँगें और पैर, उभार में उत्कीर्ण किये गये हैं, जबकि मूल चट्टान के पृष्ठभाग तथा पार्श्वभाग प्रतिमा को प्राधार प्रदान करने के लिए सुरक्षित रखे गये हैं। पार्श्व के शिलाखण्डों में चीटियों आदि की बाँबियाँ अंकित की गयी हैं और कुछेक में से कुक्कट-सर्पो अथवा काल्पनिक सर्यों को निकलते हुए अंकित किया गया है। इसी प्रकार दोनों ही अोर से निकलती हुई माधवी लता को पाँव और जाँघों से लिपटती और कंधों तक चढ़ती हुई अंकित किया गया है, जिनका अंत पुष्पों या बेरियों के गुच्छों के रूप में होता है। गोम्मट के चरण (प्रत्येक की माप २.७५ मीटर) जिस पादपीठ पर हैं वह पूर्ण विकसित कमल-रूप में है । खड्गासन-मुद्रा में गोम्मटेश्वर की इस विशाल वक्षयुक्त भव्य प्रतिमा के दोनों हाथ घटनों तक लटके हुए हैं। दोनों हाथों के अंगठे भीतर की ओर मड़े हुए हैं। सिर की रचना लगभग गोल है और ऊँचाई २.३ मीटर है (चित्र १३२)। यह अंकन किसी भी युग के सर्वोत्कृष्ट अंकनों में से एक है। नुकीली और संवेदनशील नाक, अर्धनिमीलित ध्यानमग्न नेत्र, सौम्य स्मितअोष्ठ, किंचित् बाहर को निकली हुई ठोड़ी, सुपुष्ट गाल, पिण्डयुक्त कान, मस्तष्क तक छाये हुए घुघराले केश आदि इन सभी से आकर्षक, वरन् देवात्मक, मुखमण्डल का निर्माण हुआ है। आठ मीटर चौड़े बलिष्ठ कंधे, चढ़ाव-उतार रहित कुहनी और घुटनों के जोड़, संकीर्ण नितम्ब जिनकी चौड़ाई सामने से तीन मीटर है और जो बेडौल और अत्यधिक गोल हैं, ऐसे प्रतीत होते हैं मानो मूर्ति को संतुलन प्रदान कर रहे हों, भीतर की ओर उरेखित नालीदार रीढ़, सुदृढ़ और अडिग चरण, सभी उचित अनुपात में, मूर्ति के अप्रतिम सौंदर्य और जीवंतता को बढ़ाते हैं, साथ ही वे जैन मूर्तिकला की उन प्रचलित परंपराओं की ओर भी संकेत करते हैं जिनका दैहिक प्रस्तुति से कोई संबंध न था-कदाचित तीर्थंकर या साधु के अलौकिक व्यक्तित्व के कारण, जिनके लिए मात्र भौतिक जगत का कोई अस्तित्व नहीं। केवली के द्वारा त्याग की परिपूर्णता-सूचक प्रतिमा की निरावरणता, दृढ़ निश्चयात्मकता एवं आत्मनियंत्रण की परिचायक खड्गासन-मुद्रा और ध्यानमग्न होते हुए भी मुखमण्डल पर झलकती स्मिति के अंकन में मूर्तिकार की महत् परिकल्पना और उसके कला-कौशल के दर्शन होते हैं। सिर और मुखाकृति के अतिरिक्त, हाथों, उँगलियों, नखों, पैरों तथा एड़ियों का अंकन इस कठोर दुर्गम चट्टान पर जिस दक्षता के साथ किया गया है, वह आश्चर्य की वस्तु है। संपूर्ण प्रतिमा को वास्तव
225
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org