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अध्याय 25
उत्तर भारत
भूमिका
उत्तर भारत के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात करते हुए तेरहवीं शताब्दी सांस्कृतिक क्षितिज की मध्ययुगीन प्रारंभिक एवं मध्यवर्ती परिस्थितियों के बीच एक विभाजन-रेखा प्रस्तुत करती है। मध्यकाल का प्रारंभ उस समय से होता है जब विदेशी आक्रमणकारियों ने इस्लाम धर्म के झण्डे तले दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हो अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना लिया तथा राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रसार के लिए अपनी नीतियों को लागू कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप इस देश की पूर्ववर्ती जीवन-पद्धति, परंपराएं, सौंदर्यपरक दृष्टिकोण तथा कलात्मक मूल्यों की उपेक्षा हुई और एक नयी संस्कृति के नये मानदण्ड तथा कला के नये लक्षणों का विकास हुआ। इन विजेताओं द्वारा जिन धार्मिक भवनों का निर्माण कराया गया वे इस देश की मान्य परंपराओं के प्रतिकूल थे। इस काल तक भारतीय मंदिर-स्थापत्य और उससे संबद्ध चित्र एवं मूर्तिकलाएँ रीतिबद्ध ढंग से उस पूर्ण परिपक्व अवस्था में पहुँच चुकी थीं जहाँ उनके भावी विकास की संभावनाएँ बहत ही कम रह गयी थीं। इसके आगे की शताब्दियों में उत्तर भारत के ब्राह्मणों तथा उन्हीं की भाँति जैनों ने भी परिवर्तित परिवेश के अनुरूप स्वयं को ढालने तथा अपनी सांस्कृतिक धरोहर को यथावत् सुरक्षित रखने का प्रयास किया ।
सुलतानों के शासनकाल के प्रथम चरण में इस देश के जन-साधारण का सांस्कृतिक जीवन अत्यंत अस्त-व्यस्त रहा, मंदिर और मठ आदि धार्मिक संस्थान सुचारु रूप से अपना कार्य नहीं कर सके । यह स्थिति मध्य देश में तो विशेष रूप से रही। वहाँ कई शताब्दियों तक ऐसे किसी नये मंदिर का निर्माण नहीं हुआ जिसका विशेष रूप से उल्लेख किया जा सके। कुछ साधारण मंदिरों में प्रतिमाएँ अवश्य स्थापित की गयीं जिनमें से भी अधिकांशतः प्रतिमाएं पुरानी थीं। ऐसी ही कुछ तीर्थंकरों की प्राचीन प्रतिमाओं को जिनदत्त-सूरि ने एक मंदिर में पुनप्रतिष्ठित कराया। ये प्रतिमाएँ उन्होंने महम्मद तुगलक से प्राप्त की जो उसके अधिकार में थीं। इस काल में धार्मिक
1 जिनप्रभ-सूरि. विविध-तीर्थ-कल्प. संपा. जिनबिजय. 1934. शांतिनिकेतन. पृ 45.
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