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बास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
[ भाग 6 तदनुरूप बाह्य संरचना की सरलता और सादगी सल्तनत-स्थापत्य के प्रभाव को प्रदर्शित करती है।
उत्तर भारत के मध्यकालीन कला-इतिहास की दृष्टि से बीकानेर के जैन मंदिर भी महत्त्वपूर्ण हैं। बीकानेर का सबसे प्राचीन जैन मंदिर पार्श्वनाथ का है जिसका निर्माण भाण्ड नामक एक व्यापारी द्वारा सोलहवीं शताब्दी के लगभग प्रारंभिक काल में शुरू कराया गया और जो संभवतः सोलहवीं शताब्दी के मध्य या उसके उपरांत ही पूर्ण हो पाया। भाण्ड नामक व्यापारी द्वारा निर्मित कराये जाने के कारण इस मंदिर को भाण्डसर-मंदिर भी कहा जाता है। संरचना की दृष्टि से यह मंदिर एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी योजना है और इसमें भारतीय इस्लामी स्थापत्य के तत्त्वों का निश्चित रूप में उपयोग हआ है। यह मंदिर उन प्रवृत्तियों से रहित नहीं है जो उत्तरवर्ती स्थापत्य में आकर जुड़ी हैं। यह मंदिर सामान्य भागों से युक्त है। इस मंदिर की शैली में परंपरागत तथा मुगल, इन दो शैलियों का समन्वय है, जिसमें परंपरागत शैली का शिखर तथा मुगल-शैली का मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस मंदिर के लंबे शिखर की बाह्य संरचना में बाह्य कोणों तथा लघु शिखरों से युक्त उरःशृंगों का सुंदरता के साथ उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक दिशा के मध्यभाग में प्रक्षिप्त दो तलों वाले गोखे हैं। इस मंदिर का विवरण देते हुए ग्येत्ज ने लिखा है कि 'इस मंदिर का गर्भगृह एवं प्रदक्षिणा-पथ द्वितल हैं। प्रत्येक तल में चारों ओर प्रवेश-द्वार हैं, ऊपरी तल के चारों द्वार गोखों में खुलते हैं । ये चारों गोखे एक तंग सीढ़ियों द्वारा परस्पर संबंधित हैं। ऊपरी तल के मध्यवर्ती कक्ष में जैन प्रतीक समवसरण का अंकन है जिसमें 'विश्व-नगर' की अध्यक्षता करते हुए धर्म-प्रचारक तीर्थकर सर्वतोभद्र रूप से दर्शाये गये हैं। यह मंदिर जैसलमेर के पीले पत्थरों से निर्मित है। इस मंदिर का स्थापत्य मारवाड़ और जैसलमेर के समकालीन अन्य जैन मंदिरों की भाँति अनगढ़ है। परंतु मण्डप, उसके चारों ओर की वीथियाँ तथा प्रवेश-मण्डपों के कारण यह प्रभावशाली बन पड़ा है । इन संरचनाओं का आंशिक रूप से पुनर्निमाण सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में हुआ है।'
दूसरा उल्लेखनीय मंदिर चिंतामणि राव बीकाजी का है जिसका निर्माण चिंतामणि राव बीकाजी ने प्रारंभ कराया था; जो उनकी मृत्यु के उपरांत सन् १५०५ में पूरा हो पाया। यह मंदिर एक सामान्य मंदिर है जिसमें एक गर्भगृह तथा उससे संलग्न मण्डप हैं। आगे चलकर इस मंदिर का विस्तार किया गया जिसमें एक अन्य मण्डप तथा दो दिशाओं में प्रवेश-द्वार एवं मुख-मण्डप और जोड़ दिये गये । इसका मूल-प्रासाद मध्यकालीन गुर्जर-शैली का है, तथा इसकी ऊँचाई कम है इसलिए ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता कि इसका विस्तार उत्तरवर्ती काल में हुआ। ऐसा भी प्रतीत होता है कि इस मंदिर में परंपरागत कला-प्रतीकों को गलत रूप से प्रयुक्त किया गया है । इसकी बाह्य संरचनाओं में गुंबद-युक्त मण्डपों, प्रवेश-मण्डपों तथा स्तंभों और उनके शीर्षों की अभिकल्पना एवं
1 ग्येत्ज (हरमन). दि पार्ट एण पार्कोटेक्चर प्रॉफ बीकानेर. 1950. ऑक्सफोर्ड. पृ 59.
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