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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 18001.
[भाग 6 भाग अधिष्ठान को भी दो भागों, जगती-पीठ तथा प्रासाद-पीठ, में विभक्त करता है । जगती-पीठ भू-सतह से ऊपर उठा हुआ मंचाकार भाग है जबकि प्रासाद-पीठ मंदिर के ठीक नीचे की चौकी है। इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ में तलघर के विभिन्न स्तरों (सतहों), शिखर के विभिन्न भागों तथा मण्डोवरभाग की संरचनाओं आदि का विवरण दिया गया है और उनके लिए विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि इसने तेरहवीं शताब्दी से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी तक की उस महतावधि में जबकि पश्चिम-भारत में मंदिर-वास्तु की पुनर्नवीनीकरण की प्रक्रिया पूर्ण पराकाष्ठा पर थी, नागर-शैली के मंदिरों की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाया ।
प्रतीत होता है कि पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य राणा कुंभा द्वारा दी गयी राजनैतिक स्थिरता ने जैनों के लिए एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जिसमें जैनों ने मात्र मेवाड़ में ही नहीं अपितु समीपवर्ती अन्य क्षेत्रों में भी मंदिरों का निर्माण कराया। राणा कुंभा और उसके उत्तराधिकारी के शासनकाल के अंतर्गत चित्तौड़ में दिगंबर जैनों के अनेकानेक मंदिरों का निर्माण हया जिनमें जैन कीर्तिस्तंभ के निकटवर्ती आदिनाथ का मंदिर सबसे प्राचीन है। गिरनार पहाड़ी के तीन प्रसिद्ध मंदिरसमरसिंह का मंदिर (सन् १४३८), संप्रति राजा का मंदिर (सन् १४५३) तथा मेलक-बसही (सन् १४५५) पंद्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल की निर्मितियाँ हैं। ये समस्त मंदिर नागर-शैलीमंदिरों के सोलंकी रूपांतरण पर आधारित हैं; जो ठक्कर फेरू द्वारा वास्तु-सार में उल्लिखित इस प्रकार के मंदिर के सामान्य विवरण को पूर्णतः प्रमाणित करते हैं।
जैनों द्वारा कराये गये स्थापत्यीय निर्माणों की दृष्टि से पंद्रहवीं शताब्दी पश्चिम-भारत के लिए विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होती है। इस काल में इस क्षेत्र के उस मध्यकालीन स्थापत्य को सुस्थिर किया गया जिसे जेम्स फर्ग्युसन' ने मध्य शैली (मिडिल स्टाइल) कहा है । इस मध्य शैली की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति इस युग के वास्तुविदों द्वारा तीर्थंकरों के लिए निर्मित एक अनूठे प्रकार के मंदिर में देखी जा सकती है। यह शैली नागर-शैली मंदिरों की सोलंकी एवं बघेल-शैलियों के पूर्ववर्ती अनुभवों पर आधारित है। इन मंदिरों में अधिष्ठान, देवकुलिकाएँ (चारों ओर देवालय के आकार की संरचनाएँ), अंग-शिखरों के समूह से युक्त शिखर, स्तंभों पर आधारित मण्डप, गवाक्ष (छतदार खिडकियाँ) आदि प्रमख भाग होते हैं। मध्य में केंद्रवर्ती वर्गाकार गर्भगह-यूक्त इन मंदिरों की विन्यास-रूपरेखा की विशदता ने एक नये रूपाकार को जन्म दिया है। इस प्रकार के मंदिर जैनों में प्रायः चौमुख (चतुर्मुख) के नाम से जाने जाते हैं जो भारतीय वास्तुविद्या-विषयक ग्रंथों में उल्लिखित सर्वतोभद्र-प्रकार के मंदिरों के सामान्यत: अनुरूप हैं।
चौमख-प्रकार के मंदिर का श्रेष्ठतम उदाहरण मेवाड़ में सदरी के निकट रणकपुर अथवा रनपुर स्थित आदिनाथ या युगादीश्वर-मंदिर है। यह मंदिर नैसर्गिक सौंदर्यमयी उपत्यका में अनेकानेक जैन मंदिरों के मध्य उस स्थान पर स्थित है जिसे मेवाड़ के पांच पवित्र स्थलों के अंतर्गत माना जाता है।
1 फर्म्य सन (जेम्स) हिस्ट्री प्रॉफ इणियन एण्ड ईस्टर्न प्राकिटेक्चर, 1, पुर्नमुद्रित. 1967. दिल्ली. 60.
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