Book Title: Jain Kala evam Sthapatya Part 2
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 291
________________ अध्याय 28 ] पश्चिम भारत रणकपुर का यह चौमुख-मंदिर यद्यपि स्थापत्य-कला का एक उत्कृष्टतम उदाहरण नहीं है तथापि यह विवेच्य काल के पश्चिम भारत के शिखर-मण्डित 'मध्य शैली' में निर्मित जैन मंदिरों में दर्शनीय स्थान रखता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकालीन जैन मंदिरों के पीछे बहुविविधिता की भावना मुख्य प्रेरणा कार्यरत रही है। यह चौमुख-मंदिर बहुविविधिता की इसी भावना पर आधारित है। यही समय है कि पश्चिम भारत के अन्य प्रमुख जैन केंद्रों में भी इसी प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ । माउण्ट आबू (आबू की पहाड़ी) पर स्थित प्रसिद्ध दिलवाड़ा-मंदिर-समूह में भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ को समर्पित इसी प्रकार का एक चौमुख-मंदिर है। इस मंदिर की चौमुख-प्रतिमा पर उत्कीर्ण अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस मंदिर का निर्माण सन् १४५६ में हुआ था। यह मंदिर रणकपुर के चौमुख-मंदिर के नितांत अनुरूप है। इसकी विन्यास-रूपरेखा के अनुसार इसमें चार मण्डप हैं जो गर्भगृह के चारों ओर संलग्न हैं । इसका मुख्य प्रवेश-द्वार पश्चिम दिशा में है। यह मंदिर रणकपुर-मंदिर की अपेक्षा यथेष्ट बड़ा है और इसकी छत-रचना में यहीं के प्रति प्रसिद्ध तेजपाल-मंदिर से प्रेरणा ल गयी है। दो तलवाले गर्भगृह तथा मण्डपों की बाह्य भित्तियाँ जैन देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से पूर्णरूपेण अलंकृत हैं। भरे पत्थर से निर्मित यह मंदिर अपने शिखर सहित ऊँचाई में दिलवाड़ा के समस्त मंदिरों में सबसे ऊँचा है। एक अन्य उल्लेखनीय चौमुख-मंदिर पालीताना की निकटवर्ती शत्रुजय पहाड़ी स्थित जैन मंदिरों के एक महान् नगर करलवासी-टुक में निर्मित है। यह मंदिर उत्तरी शिखर के शीर्ष पर अवस्थित । निर्माण सन १६१८ में हआ। चतुर्मख योजना वाले इसके गर्भगह का क्षेत्रफल ७ वर्गमीटर है और इसकी ऊँचाई ३० मीटर से अधिक है। यह मंदिर एक उत्तुंग शिखर से मण्डित है । इसमें चारों दिशाओं में अपेक्षित चार द्वार हैं लेकिन इसमें मण्डप मात्र एक ही है जो गर्भगृह के पूर्वी द्वार से जुड़ा हुअा है। मुख्य प्रवेश-कक्ष में पहुंचने का मार्ग इस कक्ष से होकर है। यद्यपि इस मंदिर की विन्यासरूपरेखा पश्चिम-भारत के प्रचलित नागर-शैली के मंदिरों के अनुरूप है और इसे सर्वतोभद्र-शैली की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, फिर भी इसमें अन्य तीन प्रवेश-मण्डपों, उनके चारों ओर बरामदों, प्रत्येक प्रवेश-मण्डप के ऊपर दूसरे तल्ले और उसमें गवाक्ष-युक्त खिड़कियों के कारण यह माना जा सकता है कि इसके नियोजन में चौमुख-मंदिर की अभिकल्पना का ज्ञान निहित है। इस मंदिर में पश्चिमी भित्तियों से संलग्न बाह्य कक्षों की एक पंक्ति है जो स्तंभ-युक्त बरामदे द्वारा विभक्त की गयी है। कुल मिलाकर यह मंदिर एक सजीव स्थापत्यीय संरचना का उदाहरण है जो जैनों के विशदीकरण तथा बहुविविधिता की भावना के अनुरूप है। विशदीकरण एवं बहुविविधिता की यही भावना जैन स्थापत्य में कई पीढ़ियों तक क्रियाशील रही प्रतीत होती है। जैन अनेक पवित्र स्थानों पर मंदिर-नगरों का निर्माण कराने के लिए सुविदित रहे हैं। उनके बनवाये मंदिर-नगरों में बिहार की पारसनाथ पहाड़ी (सम्मेदशिखर), गुजरात में शत्रुजय एवं गिरनार की पहाड़ियों, राजस्थान में प्राबू की पहाड़ी एवं कर्नाटक (श्रवणबेलगोला) की विध्यगिरि पहाडी में स्थित मंदिर-नगर उल्लेखनीय हैं। इन मंदिर-नगरों में पश्चिम 365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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