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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
[ भाग 6 भारत की शत्रुजय एवं गिरनार की पहाड़ियों में स्थित दो मंदिर-नगर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं (चित्र २३७, २३८) । शत्रुजय पहाड़ी-स्थित मंदिर-नगर इन सबों में सबसे बड़ा है और यह पलिताना शहर के दक्षिण में है। यहाँ के मंदिर इस पहाड़ी की दो जुड़वाँ चोटियों पर हैं जो समुद्र की सतह से ६०० मीटर ऊँची हैं। ३२० मीटर लंबी इस प्रत्येक चोटी पर ये मंदिर पंक्तिबद्ध रूप से निर्मित हैं। यह पंक्ति प्रायः अंग्रेजी के 'एस' अक्षर के आकार की है। मंदिरों की कुल संख्या ८६३ है। विभिन्न प्राकार और प्रकार के इन बहुसंख्यक मंदिरों के अतिरिक्त यहाँ पर एक चौमुख-शैली का सर्वाधिक उल्लेखनीय आदिनाथ का मंदिर भी है जो उत्तरी शिखर के शीर्ष पर स्थित है । इस मंदिर के विषय में पहले ही विस्तृत चर्चा की जा चुकी है। इसके दूसरी ओर शत्रुजय के दक्षिणी शिखर और विमल-वसही के मध्य में प्रथम तीर्थंकर मूलनायक श्री-आदीश्वर का मंदिर एक प्रमुख स्थान रखता है। यह समूचा तीर्थ-क्षेत्र ही मुख्य रूप से प्रथम तीर्थंकर को समर्पित है। प्रवेश-द्वार पर उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का वर्तमान प्रवेश-मण्डप मंदिर के सातवें पुननिर्माण के अंतर्गत चित्तौड़ (राजस्थान) के रत्नसिंह के मंत्री कर्मसिंह द्वारा सन् १५३० में बनवाया गया है। सन् ६६० के बने इस प्राचीन मंदिर की अपेक्षा यह प्रवेश-मण्डप स्पष्टतः उत्तरवर्ती है जिसे जीर्णोद्वार करते समय संभवतः किसी प्राचीन प्रवेश-मण्डप के स्थान पर बनवाया गया है। यह मंदिर दोतल्ला दिखाई देता है जिसपर एक उत्तुंग शिखर मण्डित है तथा आधार के चारों ओर छोटे-छोटे बहुत-से देवालय निर्मित हैं । इस मंदिर में मात्र एक कक्ष है। मंदिर की 'विन्यास-रूपरेखा उत्तर शिखरवर्ती चौमुख-मंदिर की अपेक्षा अत्यंत सरल है। बाह्य संरचना उल्लेखनीय रूप से अति अलंकृत है और विशिष्ट गुणों को प्रदर्शित करती है। यह मंदिर पूर्व-दिशावर्ती बाह्य-भित्ति के सम्मुख भाग, स्तंभ-युक्त प्रवेश-द्वार तथा उसका ऊपरी तल, अर्द्धवृत्ताकार तोरण जिसे विशेष प्रकार के परिवलित स्तंभ अतिरिक्त
आधार प्रदान किये हुए हैं-आदि समस्त विशेषताओं के लिए उल्लेखनीय है। पर्सी ब्राउन के अनुसार, 'इस मंदिर के विभिन्न अंग किसी भी प्रकार से एक दूसरे के समरूप नहीं हैं । अतः यह मंदिर अपने समग्र रूप में असमरूप है। यह मंदिर उन विभिन्न मंदिर-भागों का एक सम्मिश्रण है जो स्वयं में उत्तम माने गये हैं। परंतु इन विभिन्न सर्वोत्तम उपांगों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया इस मंदिर में भलीभाँति संपादित नहीं हो सकी है।' शत्रुजय पहाड़ी के ये मंदिर अलग-अलग अपनी स्थापत्यीय विशेषता नहीं रखते परंतु इन असंख्य मंदिरों का समग्र प्रभाव, वातावरण में व्याप्त नीरवता कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो दर्शकों के लिए अत्यंत आकर्षक हैं। इस मंदिर-नगर की एक विशेषता यह भी बतायी जाती है कि आज तक किसी भी व्यक्ति ने साँझ के बाद इस नगर में प्रवेश नहीं किया।
दूसरा मंदिर-नगर शत्रुजय के पश्चिम में १६० किलोमीटर दूर, समुद्र-तल से लगभग ६०० मीटर ऊँचे गिरनार की विशाल पहाडी चट्टान पर स्थित है। यद्यपि यहाँ शत्रंजय की भांति मंदिरों की बहुलता नहीं है किन्तु गिरनार के अनेक मंदिर वहाँ की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं। यहाँ के मंदिर-समूह में सबसे बड़ा नेमिनाथ-मंदिर है जिसका यहाँ के शिलालेख के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में जीर्णोद्धार हुआ था।
1 ब्राउन (पी) इण्डियन प्रार्कीटेक्चर (बुद्धिस्ट एण्ड हिन्दू). 1965. बंबई. पृ 135.
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