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बास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
[ भाग 6 शिवपुरी से ४० किलोमीटर उत्तर-पूर्व में नरवर (प्राचीन नलपुर) में अनेक जैन मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण हुआ। इन मंदिरों और मूर्तियों के उपयोग में आये श्वेत पाषाण पर यहाँ इतना अच्छा पालिश किया गया कि वह संगमरमर-सा दिखता है। नरवर के यज्वपाल, गोपालदेव और आसल्लदेव नामक राजाओं ने कला के विकास में व्यापक योग दिया।
गुना जिले के तुमैन और चंदेरी कला के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। चंदेरी और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में इस काल की पाषाण-मूर्तियाँ कहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। उनमें तीर्थंकरों और देवियों के अतिरिक्त अन्य मूर्तियाँ भी हैं, जिनमें बहत-सी अभिलिखित हैं। लगभग १४०० ई० में चंदेरी-पट्र की स्थापना हुई। श्री भट्टारक देवेंद्रकीत्ति और उनके उत्तराधिकारियों ने उस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। विदिशा जिले का सिरोंज चंदेरी के भट्टारकों के कार्यक्षेत्र में पाता था।
मालवा क्षेत्र में जैन धर्म मध्यकाल में आदि से अंत तक फैलता रहा। उज्जैन और उसके आसपास के क्षेत्र में जैन मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण परमारों के शासन के बाद भी होता रहा।
मंदसौर जिले के भानपुरा में जैन कला की प्रगति हुई। वहाँ इस काल की अनेक कला-कृतियाँ प्राप्त हुई हैं।
उज्जैन के समीप मक्सी पंद्रहवीं शती में दिगंबर और श्वेतांबर दोनों संप्रदायों का केंद्र रहा। यहाँ का प्रसिद्ध पार्श्वनाथ-मंदिर संग्रामसिंह सोनी ने १४६१ ई० में बनवाया था।
__ धार (प्राचीन धारा) के बनियावाड़ी नामक स्थान पर एक मंदिर में चौदहवीं और पंद्रहवीं शती की अभिलिखित मूर्तियाँ हैं । प्राचीन काल में धार ज्ञान और अनुसंधान का एक महान् केंद्र था।
माण्ड (माण्डवपुर) धार के निकट स्थित है और इस काल में निर्मित भव्य स्मारकों के लिए विख्यात है। यहाँ के राजदरबार में अनेक जैन विद्वानों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इनमें पेथड शाह, झांझण और मण्डन उल्लेखनीय हैं जिन्होंने जैन धर्म और कला को प्रश्रय दिया। उन्होंने अनेक जैन मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण कराया।
बड़वानी अपने अनेक जैन मंदिरों के कारण सिद्धनगर के नाम से विख्यात है। यहाँ एक चट्टान पर उत्कीर्ण एक मूर्ति २६ मीटर ऊँची है। चूलगिरि नामक उसी पहाड़ी पर बाईस जैन मंदिर हैं।
झाबुआ जिले के अलीराजपुर में विशाल जैन मूर्तियाँ और मंदिर निर्मित कराये गये।
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