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मध्य भारत
अध्याय 27 ]
ग्वालियर किले की विशाल तीर्थंकर मूर्तियाँ ( चित्र २२६ क, ख ) अलग ही प्रकार की हैं । अंगोपांगों के शिल्पांकन में, विशेषतः पैरों और हाथों के अनुपात रहित अंकन में, कुशलता की कमी स्पष्ट रूप से दीख पड़ती है। फिर भी गज और अनुचरों की प्रस्तुति से एकसरता कुछ कम जाती है ।
चित्र २३० क और ख में तीर्थंकर - मूर्तियों के परिकर का उपरिभाग चित्रित है जिसमें कला का अपकर्ष द्रष्टव्य है । इनमें की प्रथम मूर्ति अब ग्वालियर - संग्रहालय में है और द्वितीय दिगंबर जैन संग्रहालय, उज्जैन में है ।
चित्र २३१ क में पंच बाल-यति तीर्थंकर खड्गासन में स्थित हैं, उनके हाथ जंघाओं पर हैं । यहाँ सौंदर्य-बोध का प्रभाव ध्यान आकृष्ट करता है ।
फिर भी इस काल में उत्कीर्ण कुछ देव-मूर्तियों में अनुपात और सौंदर्य-बोध का अच्छा निर्वाह हुआ है । उदाहरण के लिए चित्र २३१ ख द्रष्टव्य है जिसपर एक मालाधारी विद्याधर की मूर्ति अंकित है । शिवपुरी से प्राप्त अंबिका की मस्तकहीन मूर्ति ( चित्र २३२क) और उज्जैन से प्राप्त शासनदेवी की मूर्ति ( चित्र २३२ ख ) दर्शाते हैं कि इस काल में कला की परंपरा किस प्रकार आगे बढ़ी ।
विदिशा जिले के बड़ोह और सागर जिले के पजनारी (चित्र २३३ क, ख ) आदि स्थानों के उत्तर मध्यकालीन जैन मंदिरों में एक भी ऐसा नहीं जिसमें इससे पूर्व के काल के स्थापत्य की भव्यता विद्यमान हो, वरन् उनमें कभी-कभी उत्तर मध्यकालीन राजपूत-शैली के लक्षण दिख जाते हैं। मल्हारगढ़ ( चित्र २३४ क ) इसका उदाहरण है। मंदसौर जिले में भानपुरा के निकट स्थित कोल्हा के मंदिर की अलंकरण - युक्त छत ( चित्र २३४ ख ) पश्चिम भारत के मंदिरों की छतों का स्मरण कराती है ।
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कृष्णदत्त बाजपेयी
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