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अध्याय 26 ]
पूर्व भारत
स्थापत्य का ही एक उदाहरण है और वह भी कोई प्रभावशाली नहीं है। अतः इस विवेचन के आधार पर इस काल में जैन कला को पूर्व भारत का योगदान नगण्य ही प्रतीत होता है।।
सरसी कुमार सरस्वती
उत्तर-मध्यकाल में यह विश्वास किया जाता था कि बिहार की राजगिर और पारसनाथ (पारसनाथ की पहाड़ी को सम्मेत-शिखर के रूप में पहचाना जाता है) वही स्थान है जहाँ अधिकांशतः तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया. ये स्थान जैन केंद्रों के रूप में निरंतर लोकप्रिय रहे हैं। इन दोनों स्थानों पर उपलब्ध अभिलेखांकित तीर्थंकर एवं अन्य प्रतिमाएं तथा पादुकाएं यह प्रमाणित करती हैं कि यहाँ पर जैन साधु निरंतर सक्रिय रहे हैं (शाह अंबालाल प्रेमचंद . जैन-तीर्थकर-संग्रह-1 (गुजराती), 1953, अहमदाबाद, 4 453-63 तथा 44447). परन्तु इस काल के स्मारक यहाँ पर उपलब्ध नहीं हैं. प्रोफेसर सरस्वती ने पत्राचार द्वारा राजगिर मंदिरों के न्यास के एक न्यासधारी श्री विजयसिंह नाहर से प्राप्त सूचना के अनुसार बताया है कि राजगिर में इस समय कोई भी मंदिर सन् 1800 से पूर्व का निर्मित नहीं है. लिस्टर (ई). बिहार एण्ड उड़ीसा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स, हजारीबाग, 1917, पटना, में उद्धृत पारसनाथ के सन् 1827 के विवरण में कहा गया है कि सन् 1765 में मुर्शिदाबाद के जगतसेठ शौगलचंद ने यहाँ पर एक पार्श्वनाथ-मंदिर का निर्माण कराया जिसकी छत पर पाँच गुंबद थे, बीच का गुंबद सबसे बड़ा था. इस कथन से इस अध्याय के शैलीगत विवरण की पुष्टि होती है./ब्लोच (टी). एनुअल रिपोर्ट प्रॉफ दि प्रायॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ इण्डिया, बंगाल सकिल, 1902-03, कलकत्ता, पृ 13 के अनुसार यह मंदिर भी विद्युत के गिरने से, कुछ समय पूर्व, नष्ट हो गया. इस समय जो मंदिर विद्यमान है उसका निर्माण हाल ही में हुआ है-संपादक.)
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