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अध्याय 21 ]
पूर्व भारत जा चुका है। अलौरा के भूमिगत भण्डार से २६ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें से कुछ अभिलेखांकित हैं । अभिलेखों में इन मूर्तियों के दान-दाताओं का उल्लेख है, जिनमें से एकाध आचार्य भी हैं। इन प्रतिमाओं में से एक में लांछनों सहित तीर्थंकर ऋषभनाथ और महावीर को अंकित किया गया है। यहाँ यह उल्लेख करना भी उपयुक्त रहेगा कि इस भण्डार के वर्गीकरण से यह ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में लगभग इसी काल के अंतर्गत कौन-कौन-से तीर्थकर अधिक लोकप्रिय थे । इस वर्गीकरण के अनुसार सबसे अधिक प्रतिमाएँ ऋषभनाथ की हैं, जिनकी संख्या आठ है, इसके उपरांत महावीर और कुन्थुनाथ का दूसरा स्थान है जिनकी छह-छह प्रतिमाएँ हैं, चंद्रप्रभ एवं पार्श्वनाथ की दो-दो प्रतिमाएँ तथा अजितनाथ, विमलनाथ एवं नेमिनाथ की एक-एक प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त अंबिका यक्षी की प्रतिमाओं का भी समूह (चित्र १५७ ख) यहाँ पाया गया है। इस संदर्भ में मानभूम (बिहार) से प्राप्त ऋषभनाथ की एक कांस्य-प्रतिमा (चित्र १५८ क)का भी उल्लेख करना उपयुक्त रहेगा जो इस समय आशुतोष संग्रहालय में है। अपने अनगढ़पन के कारण इस प्रतिमा का रचना-काल बारहवीं शताब्दी से पूर्व का निश्चित नहीं किया जा सकता।
अलौरा से तेरहवीं शताब्दी की एक पाषाण-प्रतिमा भी प्राप्त हुई है जो तीर्थंकर शांतिनाथ के कायोत्सर्ग-मुद्रा की है। पादपीठ पर उनका लांछन हरिण अंकित है। शीर्ष पर छत्र-अंकित इस प्रतिमा पर अन्य अनेक तीर्थंकरों की आकृतियाँ भी प्रदर्शित हैं।
मानभूम जिलांतर्गत पालमा से भी तीन प्रतिमाएं मिली हैं जिनमें से दो क्रमश: तीर्थंकर अजितनाथ (चित्र १५८ ख) एवं शांतिनाथ की है। इन प्रतिमाओं का समय ग्यारहवीं शताब्दी . निर्धारित किया जा सकता है। पहली प्रतिमा में तीर्थंकर अजितनाथ को एक मंदिर में प्रतिष्ठित दर्शाया गया है। मंदिर के सम्मुख भाग में एक त्रिपर्ण तोरण है, जिसपर नागर-शैली का एक वक्राकार शिखर मण्डित है । इस प्रतिमा से यह भी प्रमाण मिलता है कि जैन उपासक उत्तर भारत की प्रचलित शैली में भी अपने मंदिरों का निर्माण करते थे। यह प्रतिमा विशालाकार है। इसके पादपीठ पर तीर्थकर का लांछन गज अंकित है। दूसरी प्रतिमा के पादपीठ पर लांछन हरिण अंकित है जिससे यह पहचाना जा सकता है कि यह प्रतिमा शांतिनाथ की है। इसी काल की एक तीसरी प्रतिमा भी है। यह प्रतिमा जिस प्रकार से अंकित है उससे अनुमान होता है कि यह प्रतिमा तीर्थंकर नमिनाथ की है; लेकिन इसपर अंकित लांछन गज के होने से यह भी संभव है कि यह प्रतिमा अजितनाथ की हो । तीर्थकर के पार्श्व में दोनों ओर चमरधारी सेवक हैं । इस प्रतिमा के प्रत्येक पार्श्व में तीन-तीन तीर्थंकरों की चार लंबमान पंक्तियों में बारह-बारह तीर्थंकर अंकित हैं।
स्थापत्य में प्रयुक्त एक जैन कला-प्रतीक हम जैनों के एक ऐसे विशेष मूर्तिपरक कला-प्रतीक से परिचित हैं जिसे चतुर्मुख (चौमुख या चौमुह) कहा जाता है । इसमें एक वर्गाकार शिलाखण्ड की चारों सतहों पर (चार) प्रतिमाएँ उत्कीर्ण
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वही, पृ 90.
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