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अध्याय 23 ]
पश्चिम भारत मुद्रा में तीर्थंकर की यह मूर्ति (चित्र १९८ ख) प्रत्येक ओर चार देवियों के अतिरिक्त पूरे परिकर को दर्शाती है। शायद वे विभिन्न विद्यादेवियाँ हैं।
समस्त भारत से मध्य युग के विभिन्न जैन मंदिरों से प्राप्त दान-दाताओं एवं मुनियों की आकृतियों की मूर्तियों का अध्ययन बहुत उपेक्षित रहा है। गुजरात के मंदिरों में इस प्रकार की बहुत-सी मूर्तियाँ हैं । यद्यपि वे कुछ-कुछ परंपरागत शैली का अनुकरण करती जान पड़ती हैं तथापि उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह जान पड़ता है कि वे प्राकृति-अंकन के, विशेषकर चौलुक्य-काल के, संदर प्रयास हैं। चित्र १६६ में एक दानी दंपति--भाण्डागारिक धांधु और उसकी पत्नी शिवदेवी तथा उनके साथ दो पुत्रों की लघु आकृतियों की मूर्तियाँ खंभात के एक जैन मंदिर में संवत् १२६० (१२०३ ई०) में स्थापित की गयी थीं। शाढ्यदेव की एक मति (चित्र २००) संवत् १२४२ (११८५ ई०) में बनायी गयी थी । वरावन से प्राप्त यह मूर्ति प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, बंबई में सुरक्षित है। चित्र २०१ में मंत्री वस्तुपाल को उसकी पत्नियों सहित दिखाया गया है। यह मूर्ति लूण-वसही की है।
चौलुक्य-काल में धातु की मूर्तियों की ढलाई यथेष्ट आगे बढ़ चुकी थी, जैसा कि गुजरात और राजस्थान के विभिन्न मंदिरों से बहत अधिक संख्या में प्राप्त धातु-निर्मित जैन प्रतिमाओं से स्पष्ट है। इस युग की कला का सबसे उत्तम नमूना, जो ११८८ ई० का है, पूरे परिकर से युक्त शांतिनाथ की सुंदर कांस्य प्रतिमा है जो इस समय विक्टोरिया ऐण्ड अलबर्ट म्यूज़ियम, लंदन में सुरक्षित है । संभवतः तीन तीर्थंकरों वाली एक बहुत बड़ी कांस्य-प्रतिमा का एक भाग, जो इस समय उत्तर-पश्चिम गुजरात के वाव नामक स्थान पर सुरक्षित है, खड़ी हुई मुद्रा में तीर्थंकर की चमरधारी सहित वह सुंदर मूर्ति है जो चित्र-संख्या २०२ के रूप में इस ग्रंथ में दी गयी है।
उमाकांत प्रेमानंद शाह
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