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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई.
[ भाग 5
में कल्याणी के चालुक्यों की शैली के सम्मिश्रण से हा; शिल्पांकन में जो अपमिश्रण हया उसमें स्थापत्य की मर्यादाओं के निर्वाह का योग भी रहा । माध्यम अर्थात् पाषाण आदि सामग्री के चुनाव में भी उन्होंने दोहरी नीति का परिचय दिया, अपने मुख्य स्मारकों में और
तः अपने साम्राज्य के उत्तरी भाग में उन्होंने हलके हरे रंग के कोमल स्तर वाले पाषाण का उपयोग किया, जहाँ यह उपलब्ध है; और तमिलनाडु की सीमाओं को छूते दक्षिणी भागों में कठोर उत्तम ग्रेनाइट पाषाण का उपयोग किया । इन दो प्रकार की सामग्रियों के उपयोग के परिणामस्वरूप शैली पर भी प्रभाव पड़ा । उसकी अलंकरणों की व्यापकता, उसके आयामों और यहाँ तक कि उसकी मौलिक परिकल्पना में भी अंतर पड़ा।
होयसलों द्वारा निर्मित मंदिर नितांत आडंबरहीन और विशद रूप से संयोजित हैं। उनका निर्माण उस समय हुआ जब यह महान् राजवंश निरंतर निर्माण कार्य में दत्तचित्त था और इस कार्य को रानी शांतला देवी का विशेष राजाश्रय भी प्राप्त रहा; जो जैन धर्म को उस समय भी समृद्ध करती रही जब उसके पति राजा विष्णुवर्धन ने रामानुज के प्रभाव में आकर वैष्णव धर्म अपना लिया। उनके मंदिरों में साधारणतः तारकाकार विन्यास-रेखा, जगती-पीठ और यहाँ तक कि 'उत्तरी' शिखर-संयोजना के अनुकरण को स्थान नहीं दिया गया । अंतर्भाग के शिल्पांकन बहिगि के शिल्पांकनों से कठोर किन्तु समद्ध हैं; वे स्तंभों, वितानों आदि पर कुशलतापूर्वक बड़ी संख्या में उत्कीर्ण किये गये हैं। अनुष्ठान के लिए निर्मित देवकूलिकाओं और गर्भालयों में भी उनका अंकन हुआ, जिनकी एक विशेषता तो है दर्पण की भाँति चमकते हुए पालिशवाला उनका तल; और दूसरी विशेषता अलंकरणों में संयम की मर्यादा है। ये विशेषताएँ उत्तरकालीन चालुक्यों द्वारा सुदूर उत्तर में निर्मित मंदिरों में भी अपनायी गयीं । मुख्य मूर्ति के कई प्रकार थे, उनके संहनन भी विविध थे, इन दोनों विशेषताओं के क्षेत्र की व्यापकता वास्तव में उन गौण मूर्तियों पर निर्भर थी जिनकी स्थापना अनुष्ठान संबंधी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अंतर्भाग में उप-गर्भालयों में और बहिर्भाग में मण्डपों में की जाती थी । मंदिरों में और बहुत-सी विविधताएं रहीं किन्तु उनकी छत एक पीठिका-बंध के रूप में समतल ही बनती रही, यद्यपि उसके अर्ध-मण्डप ने अपने मूल रूप को बनाये रखकर भी शुकनासा को अपनाने का उपक्रम किया ।
होयसलों के शासनकाल में हासन जिले के श्रवणबेलगोला में अनेक लघु और विशाल मंदिरों का निर्माण होता रहा । एक मंदिर वहाँ तेरीन-बस्ती कहा जाता है क्योंकि उसके समीप ही एक मंदिर-यान का निर्माण हुआ है । वह वास्तव में बाहुबली-वसदि है, उसमें उनकी मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह दक्षिण और उत्तर में खुला है । यान-सदृश वास्तु को वहाँ मण्डप कहते हैं, उसके चारों ओर बावन तीर्थंकर मूर्तियों का अंकन है । इस प्रकार के मण्डप के कई रूप जैन कला में प्रचलित हैं, जैसे नंदीश्वर, मेरु, जिनमें से यह मण्डप पहले प्रकार का है। उसपर उत्कीर्ण १११७ ई. के तिथ्यंकित अभिलेख में वृत्तांत है कि राजा विष्णुवर्धन
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