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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग परंपरागत प्रतिभा और प्रथा का अनुकरण किया। तथापि स्थापत्य और मूर्तिकला दोनों में उन्होंने आडंबर-हीनता के साथ गतिशीलता भी रखी, किन्तु कभी-कभी इसमें अंतर भी पड़ा ; शिल्पांकनों में भी और चित्रकारी में भी स्तंभों पर आवश्यकता से भी अधिक पट्टिकाएँ उकेरी गयीं ; भित्तियों पर तीर्थंकरों, देवों, यक्षों, यक्षियों आदि की मूर्तियाँ इतनी अधिक बनायी गयीं कि उनसे उकताहट होने लगी और उनके कारण स्थापत्य और मूर्तिकला का यथार्थ सौंदर्य प्रानुष्ठानिक साज-सज्जा में विलीन होकर रह गया। वस्तुत: जैन कला ने इस काल में कभी तो आद्योपांत, और कभी, कहींकहीं, सौंदर्यगत सूक्ष्मता और भावना से मानो कुछ दुराव ही किया। किन्तु यह उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए कि वास्तविक कला-प्रवणता और संगति का तत्त्व उनमें आदि से अंत तक बना रहा जो स्थान-स्थान पर एक विशेष तालमान से निर्मित पद्मासन या खड्गासन तीर्थंकर-मूर्तियों में देखा जा सकता है।
पाषाण आदि मूल सामग्री का अन्यथा प्रभाव शैली पर तथा अन्य तत्त्वों पर पड़ा, इसके कई पहल थे जो बद्धमल होते-होते क्रमश: क्षेत्रीय शैलियों या मर्यादाओं के रूप में सामने आये । उदाहरण के लिए पेडु तुम्बलम, चिप्पगिरि या दानवुलपडु (चित्र २१७ क) में अपनायी गयी यादव-काकतीय शैली के अंतर्गत कपोलास्थिया उभरी हुई दिखाई गयीं और कपोलों को मुखभाग के वर्तुलाकार से इतनी दूरी पर दिखाया गया कि वे समतल प्रतीत होने लगे। शरीर आगे की ओर झुका हया और हाथों तथा पैरों के निचले भाग पतले कर दिये गये। शिला-फलक पर मुख्य मूर्ति के परिकर के रूप में सिंह-ललाट सहित मकर-तोरण होता (जैसा कि ब्राह्मण्य शिल्पांकनों में भी हुआ)। शरीर सूता हा दिखाया गया और कंधों, नितंबों, कटि आदि का आकार यथोचित अनुपात में लिया गया। किन्तु होयसलों और पश्चिमी चालुक्यों की शैली के अंतर्गत मुख-मण्डल और शरीर को सुपुष्ट और मांसल दिखाया गया, और तीर्थंकर-मूर्ति के परिकर में, उसके आकार और शिल्पांकन के अनुरूप, मकर-तोरण, चमरधारी, यक्ष तथा अन्य अलंकरण प्रस्तुत किये गये।
पश्चिमी प्रांध्र प्रदेश में चौमुख का भी प्रचलन था। यह एक प्रकार का वहनीय मंदिर था जो एक वर्तु लाकार पीठ पर संयोजित एक ऐसे स्तंभ का प्रतिरूप होता है जो ब्राह्मण धर्म में प्रचलित लिंग से प्रायः प्राकृति में एकरूप है। इसका एक अच्छा उदाहरण मद्रास संग्रहालय (चित्र २१७ ख) में है जो दानवुलपडु से प्राप्त हुआ था। ऐसे चौमुखों पर संगीत-मण्डलियों और विद्याधरों के साथ अग्नि, यम, वरुण, रेवंत आदि दिक्पालों का मूयंकन पीठ के पार्श्व-कोणों पर (चित्र २१८ क) और विशेष रूप से सुपार्श्वनाथ और वर्धमान का सम्मुख पाश्वों पर होता है। इस प्रकार के चौमुखों में सर्वप्रथम कदाचित् राष्ट्रकूट-काल का था जैसाकि उपर्युक्त स्थान से प्राप्त हुए एक अभिलेख से ज्ञात होता है । यह अभिलेख जिस चौमुख पर उत्कीर्ण है वह नित्यवर्ष इन्द्र-तृतीय (दसवीं शती) के समय का माना जाता है। उसकी स्थापना तीर्थंकर शांतिनाथ की भव्य प्रतिष्ठा के अवसर पर
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