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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[भाग 5 जिसकी बाह्य-भित्तियाँ कभी-कभी ही मध्य में संयोजित बंधन-पट्टिकाओं के अतिरिक्त समतल हुआ करती हैं। मंदिर का ऐसा रूप-प्रकार कुर्नूल जिले के बड़े भाग में कृष्णा और तुंगभद्रा के तटों पर मर्मुनगल, प्रगतुर, बेकम, सिमसिल, पापनाशनम् आदि में दृष्टिगत होता है। जैन धर्म में मंदिर के इस प्रकार के अपनाये जाने का मुख्य कारण उसकी समतलता और आडंबरहीनता ही है।
मध्यवर्ती और पूर्वी प्रांध्र प्रदेश के कुर्नल, गुण्ट्रर और कृष्णा जिलों के साथ ही अन्य क्षेत्र में भी जिनका प्रचलन रहा और ब्राह्मणों और जैनों ने जिनका अपनी-अपनी शब्दावली में प्रयोग किया ऐसी स्थापत्य संबंधी परंपराओं के माध्यम से मूर्ति-शिल्प की जो शैली सर्वसाधारण में प्रचलित हई उसका विवेचन किया जा रहा है। इस शैली के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के मंदिरों की लघु अनुकृतियाँ स्तंभाकार पाषाणों पर उत्कीर्ण की जाती हैं। पूर्वी चालुक्यों के राजाश्रय और राज्यक्षेत्र में इसका बहुत प्रचलन रहा, जैसा कि महानदी, सत्यवोलु, यल्लेश्वरम् आदि में निर्मित ब्राह्मण्य शिल्पकृतियों में दृष्टिगत होता है। जैनों की शिल्पकृतियाँ वेमुलवाड, पद्मकाशी. विजयवाडा आदि में प्राप्त हुई हैं, उनमें साधारणत: चार तीर्थंकरों सहित चौमुख और चौबीस तीर्थंकरों सहित चौबीसियाँ हैं जिनमें पद्मासन या खड्गासन-मुद्रा में क्रमशः एक ओर छह मूर्तियाँ प्रत्येक पार्श्व पर अंकित होती हैं।
__वर्धमानपुर, प्रगतुर आदि जैसे महत्त्वपूर्ण जैन केंद्रों में त्रिकूटाचल-मंदिरों की अनुकृतियाँ बनीं, किन्तु पुडूर, कदंबूर, पद्मकाशी, चिप्पगिरि और पेड्डतुम्बलम् में इन अनुकृतियों में केवल एक ही शिखर की संयोजना हुई है।
पुडूर के मंदिर का नाम पल्लव-जिनालय है, जिसका निर्माण कल्याणी के चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल विक्रमादित्य (१०७६-११२६ ई.) के एक सामंत हल्लकरश के संरक्षण में उसी के द्वारा दान की गयी भूमि पर द्रविड़ -संघ के भट्टारक जैन गुरु कनकसेन ने कराया था। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल और अलिंद हैं। कदंबूर में भी ऐसे तीन मंदिर हैं पर उनके शिखर तलपीठ सहित हैं; उनमें से एक उत्तराभिमुख मंदिर अन्य मंदिरों के समान ही है पर उसमें गर्भगह. अर्धमण्डप, एक लंबे स्तंभ-युक्त प्रशाल और एक पाषाण-निर्मित प्राकार की संयोजना है। इसके निर्माण में एक विशेषता यह है कि दोनों ओर परतदार पाषाण से निर्मित भित्तियों से इसमें एक दोहरा तलकक्ष बनाया गया है, उसमें मिट्टी की भरत की गयी है और इससे भित्तियों की रेखा कोषाकार हो गयी है। प्राकार के प्रवेश के द्वार-पक्ष पर पूर्णघटों का और उसके ललाट-बिम्ब पर एक तीर्थंकर-मूर्ति का अंकन हुआ है। स्वयं मंदिर के प्रवेश के दोनों द्वार-पक्षों पर दो-दो खड़गासन तीर्थंकर-मूर्तियाँ और ललाट-बिम्ब पर एक पदमासन तीर्थंकर-मूर्ति उत्कीर्ण हैं। अन्य मंदिरों (ब्राह्मण्य ) में मल्लिकार्जन नामक मंदिर के कपिशीर्ष-युक्त प्राकार की भित्तियों पर दो पंक्तियों में अनेक जैन शिल्पांकन उत्कीर्ण हैं जिनमें विविध दृश्य हैं : जैन मंदिर के समक्ष पूजक-गण; मंदिर से निकलता हुआ एक दिगंबर मुनि;
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