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अभ्याब 24]
दक्षिणापथ और दक्षिण भारत मंदिर के बाह्य भाग की संयोजना अधिष्ठान पर हुई है जिसमें विशाल दोहरा उपान है, पद्म है, एक सोपानयुक्त जगती-पीठ है, एक और पद्म है, कणि (कणिका), कपोत और व्यालवरि भी हैं। व्यालों का अंकन अत्यंत जीवंत बन पड़ा है। उनके साथ-साथ वेदी की संयोजना भी है जिसके राजसेनक भाग पर, प्रत्येक युगल भित्ति-स्तंभ के मध्य, मिथुनों और संगीत
और नृत्य-मण्डलियों के अंकन हैं । मण्डप-पाश्वों पर वेदी और कक्षासन से कपोतिका तक ऊंची एक जालीदार भित्ति का निर्माण हुआ है ।
मण्डप के प्रवेश का द्वार-पक्ष पंचशाखा-प्रकार का है, जिसका अलंकरण पर्याप्त लंबमान उत्तरांग की कपोतिका से हुआ है। साथ ही ललाट-बिम्ब से, जिस पर यक्षों और यक्षियों से परिवृत आसनस्थ तीर्थंकरों का अंकन है। मुख्य विमान और अर्ध-मण्डप नामक विभागों के पीठ पर व्यालवरि की संयोजना नहीं है जो केवल महा-मण्डप और तीन अग्र-मण्डपों से संयुक्त रंग-मण्डप के पीठ में है। इससे इस मंदिर के वर्तमान विन्यास से भी यही ज्ञात होता है कि उसमें दो बार संवर्धन हुआ है। गर्भगृह और अर्ध-मण्डप की भित्तियों का अलंकरण भी साधारण है, उसमें इकहरे भित्ति-स्तंभ हैं जिनके शीर्ष पर विमानाकृतियों की संयोजना विमानाकृतियों के भद्र-विभाग के मकर-तोरण के नीचे एक देवकुलिका है, भद्र-विभाग के ऊपर एक बाह्य तोरणाकृति है जिसकी चूलिका पर एक विमान-अभिप्राय का त्रिकोण-तोरण है। इस मंदिर का बाह्य भाग समय-समय पर अत्यधिक और अव्यवस्थित रूप से परिवर्तित किया जाता रहा है। प्रारंभिक चालुक्य-शैली में एक विशेष काल में निर्मित आसीन यक्षी-मूर्तियाँ सौभाग्यवश सुरक्षित रह गयी हैं, जो दक्षिण-पूर्व कोण पर स्थित हैं। मंदिर के सामने के भाग में एक मान-स्तंभ है। निर्मम विध्वंस और नाम-मात्र की पूजा के होते हुए भी यह
य मंदिर छठी शती से तेरहवीं शती तक के अपने अतीत की यशोगाथा कह रहा है ।
होयसलों द्वारा निर्मित स्मारक
होयसल स्थापत्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि अपने मोहक सौंदर्य, वैविध्य और चरम भव्यता पर स्वयं ही मन्त्र-मुग्ध हुई उनकी कला में एक मिश्रण भी हैविमान-शैली का, जिसमें वह आमूल-चूल डूबी है; और 'उत्तरी' रेख-नागर-प्रासाद-शैली का, जिसके बहुत से तत्त्वों को उसने स्वेच्छया और कल्पना-विभोर होकर स्वीकार कर लिया । संदेह नहीं कि उत्तरकालीन चालुक्यों के राज्यक्षेत्र में उस पर सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ा और राजनीतिक भी । परिणाम यह हुआ कि अपने समय में प्रचलित विभिन्न कला-शैलियों को अंशतः आत्मसात करके वह एक कला-समष्टि के रूप में प्रकट हई। इन विभिन्न कला-शैलियों के अंश थे-चोल और पाण्ड्य-कलापों का व्यावहारिक सम्मिश्रण, गंगों और नोलम्बों की कला-चारुता, कदंबों और आलूपों के कलाकारों की सिद्धहस्तता और मूर्ति-निर्माण के प्रति उत्साह । तात्पर्य यह कि होयसलों के स्थापत्य का उद्गम मैसूर के इस दक्षिणी भाग
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