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अध्याय 23 ]
पश्चिम भारत
मूर्तिकला
जैन मूर्तिकला के विकास-क्रम में चौलुक्य-युग सर्वाधिक उन्नति का युग है। जैन संरक्षण में कला और स्थापत्य की कुछ सर्वोत्कृष्ट एवं अनुपम कृतियों के निर्माण के लिए भी वह प्रसिद्ध है।
उक्त यूग से पहले, छठी शताब्दी के लगभग मध्य भाग से, तीर्थंकर-प्रतिमा के पादपीठ पर या उसके पास एक शासनदेवता-युगल (यक्ष और यक्षिणी) का अंकन प्रारंभ हो गया था। इस युगल में दो भुजाओंवाला कुबेर-जैसा यक्ष होता था जिसे सर्वानुभूति या सर्वाह कहा जाता था। उसके हाथों में एक बिजौरा तथा रुपयों की थैली अंकित की जाती थी। दो हाथोंवाली यक्षिणी अंबिका के दाहिने हाथ में सामान्यत: पाम्रगुच्छ होता था और वह अपने बायें हाथ से अपनी बायीं गोद के एक शिशु को सँभाले हए होती थी। यह युगल सभी चौबीसों तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के साथ अंकित किया जाता था । आगे चलकर, संभवत: दसवीं शताब्दी के अंत में, पश्चिम भारत के जैन मंदिरों में प्रत्येक तीर्थंकर के अलग-अलग शासनदेवता अंकित किये जाने लगे, जिनकी सूची त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित, निर्वाण-कलिका, अभिधान-चिंतामणि आदि में उपलब्ध होती है। किन्तु पूर्वोक्त युगल का चित्रण भी बहुत समय तक होता रहा जैसा कि आबू पर्वत पर स्थित विमल-वसही की कुछ देवकुलिकाओं तथा कुंभरिया स्थित मंदिरों से स्पष्ट है। पूर्वकाल की दो भुजाओंवाली अंबिका के दो हाथ और अंकित किये गये जिसमें उसे आम्रगुच्छ लिये हुए दर्शाया गया । जो भी हो इसमें अधिक महत्त्व की बात यह है कि मंदिरों की दीवारों पर दिक्पाल की प्राकृतियों के अंकन का चलन अधिक हो गया और ब्राह्मण्य प्रभाव के फलस्वरूप विमल-वसही की भ्रमती की छतों पर सप्तमातृका-आकृतियों का अंकन प्रारंभ हुआ। मंदिर के इन भागों का समय बारहवीं शताब्दी और कुछ का तेरहवीं शताब्दी भी है।
स्तंभों तथा मुख्य देवालय के गर्भगृहों के द्वारों की चौखटों और भ्रमतियों की देवकुलिकानों या कोष्ठों का अलंकरण यक्षिणियों, विद्यादेवियों आदि के अंकन द्वारा किया गया। विद्यादेवियों के अंकन का चलन अब भी अधिक था किन्तु बड़े-बड़े मंदिरों को छोड़कर अन्य मंदिरों में उनका अंकन इस अवधि के अंत में कम हो गया । सौभाग्य से, सोलह महादेवियों का पूरा समूह (तुलना कीजिएमानवी और महामानसी, चित्र १६५ क और ख) अब हमें विमल-वसही के रंग-मण्डप में प्राप्त है जिसका कुमारपाल के मंत्री पृथ्वीपाल ने कुमारपाल के शासन के पूर्वभाग में पूर्ण जीर्णोद्धार कराया था। इनके अतिरिक्त, इस मण्डप में ब्रह्म-शांति यक्ष और शूलपाणि (कपद्दिन ?) की मूर्तियाँ हैं । इसमें संदेह नहीं कि ये ब्राह्मण्य मूल की हैं। ये मूर्तियाँ जैन देवकुल में ब्राह्मण्य देवी-देवताओं को गौण स्थिति में अंकित करने के प्रयत्न हैं । जैन पुराण साहित्य की वृद्धि हो रही थी और परिवर्तित जैन परिस्थितियों में ब्राह्मण्य प्राख्यानों का प्रारंभ किया गया था। इस प्रकार के उदाहरण हैं--आबू पर्वत पर विमलशाह और वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा निर्मित मंदिरों की भ्रमतियों की छतों पर हिरण्यकश्यप का वध करते हुए नृसिंह की मूर्ति तथा कृष्ण के जीवन की झाँकियाँ (चित्र १८६ क और ख)।
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