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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
गया जहाँ उन्होंने स्वेच्छया भूमिज-शैली को अपनाया, जो ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में एक व्यापक क्षेत्र में प्रचलित हुई।
इसलिए क्षेत्रीय और सांस्कृतिक प्रतिबद्धताओं के अंतर्गत दक्षिणापथ में हुए निर्माण कार्य में एक मिश्रित 'उत्तरी' शैली अथवा प्रच्छन्न 'दक्षिणी' शैली किसी सीमा तक प्रचलित हुई। केवल उत्तरकालीन विजयनगर-शैली इसका अपवाद रही जो अपनी शैली में निर्मित सभी स्थानों के मंदिरों में शुद्ध 'दक्षिणी' स्थापत्य-परंपराओं को प्रतिबिंबित करती रही, और जिसने किसी सीमा तक उस कदंबनागर उपशैली अर्थात् फांसना-शैली को प्रोत्साहित किया जो अपने 'दक्षिणी' शैली के शिखर-आकार को बनाये रखने के कारण समुद्रतटीय कोंकण-कनारा क्षेत्र में लोकप्रिय और प्रभावशाली थी। इस फांसना-शैली में बहिर्भाग समतल ही हुआ करता था किन्तु तल भित्ति पर पट्टिकाएँ होती थीं और अधिष्ठान में कदाचित् जगती-पीठ की अपेक्षा उपपीठ को स्थान मिलता था।
यह सर्वविदित है कि जैन मंदिर-निर्माण की प्रक्रिया विकास के प्रायः उन्हीं सोपानों से अग्रसर हुई जिनसे ब्राह्मण्य प्रक्रिया । तथापि, जैन स्थापत्य अपनी स्वतंत्रता बनाये रहा क्योंकि उसने कुछ ऐसी मूर्तिशास्त्रीय विशेषताओं का आश्रय लिया जिनसे उसे एक स्वतंत्र रूपाकार प्राप्त हुआ। उदाहरणार्थ, इन विशेषताओं की झलक ऐहोल के मेगूटी-मंदिर में और श्रवणबेलगोला की चामुण्डराय-बस्ती में विशेष रूप से निर्मित अतिरिक्त उप-गर्भालय के निर्माण में तो मिलती ही है, एलीफैण्टा की मुख्य और एलोरा की धूमरलेण नामक ब्राह्मण्य गुफाओं की भांति चार द्वारोंसहित चौमुख के निर्माण में भी मिलती है, जिनका प्रारंभिक रूप एलोरा की इंद्रसभा-गुफा के मुख-मण्डप में दृष्टिगत होता है। ये चौमुख मंदिर कार्कल, जेरसोप्पा और अन्य स्थानों की चतुर्मुख-बस्तियों की भाँति मुख्य गर्भालय की परंपरा को स्थापित करते हैं। इस परंपरा के मंदिरों की विन्यास-रेखा में एक त्रिकूट-बस्ती या पंचकूट-बस्ती का भी प्रावधान होता है जिसमें मुख्य, अर्थात् तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और उपमुख्य, अर्थात् गोम्मट के नाम से सुपरिचित बाहुबली आदि की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं।
इन मंदिरों की दूसरी विशेषता यह है कि जगती के अंतर्गत मंदिर के बहिर्भाग को या उसकी समूची बाह्य संयोजना को ही आडंबरपूर्ण अलंकरण से मुक्त रखा गया किन्तु अंतर्भाग में आवश्यकता से अधिक अलंकरण और मूर्यंकन की उपेक्षा नही की गयी।
उत्तरकालीन चालुक्यों द्वारा निर्मित स्मारक
कल्याणी के चालुक्यों ने अनेक सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें से मुख्य हैंधारवाड़ ज़िले में लक्कुण्डी का ब्रह्म-जिनालय, बीजापुर जिले में ऐहोल का चारण्टी मठ और धारवाड़
1 [देखिए प्रथम भाग में पृ 200, चित्र 125-संपादक].
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