________________
वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
नवीन रूप प्रदान करने के अतिरिक्त, जगदूशा ने ये मंदिर बनवाये : ढांका में एक मंदिर ऋषभनाथ का, चौबीस देवकुलिकाओं युक्त एक मंदिर वढवन में, शत्रुजय पर एक मंदिर, और बावन देवकुलिकाओं से युक्त एक मंदिर सेवड़ी (१२५०-७० ई०) में ।
माण्डु के पेठड को यह श्रेय दिया जाता है कि उसने महत्त्वपूर्ण जैन केंद्रों में, जिनमें शत्रुजय, प्रभास, ढोलका और सलक्षणपूर भी सम्मिलित हैं, सन् १२६४ के आसपास चौरासी जैन मंदिरों का निर्माण कराया था।
.
___जैन समाज ने चौलुक्य कला और स्थापत्य की उन्नति में जो योगदान किया उसकी अतिरंजना नहीं की जा सकती। इस समय जो चौलुक्यकालीन मंदिर विद्यमान हैं उनमें से लगभग चालीस प्रतिशत जैन धर्मावलंबियों के हैं और उनमें भी स्थापत्य की दृष्टि से विशाल आकार के कम से कम साठ प्रतिशत मंदिर जैन संरक्षण के परिणाम हैं। पश्चिम भारत में साहित्य और संस्कृति का सामान्य रूप से और निर्माण-कला का विशेष रूप से जो प्रचुर विकास हुआ उसका अधिकांश श्रेय जैन मुनियों के निःस्वार्थ एवं प्रेरक नेतृत्व और जैन व्यवसायियों तथा उन दानवीरों के उदार संरक्षण को है जिनमें वस्तुपाल, तेजपाल, जगदूशा तथा पेठड-जैसे प्रसिद्ध पुरुषों की गणना होती है । राजनीतिक स्वाधीनता नहीं रह जाने और उसके परिणामस्वरूप राज्य का संरक्षण नहीं मिल पाने पर भी यदि चौलुक्य-कला और स्थापत्य का ह्रास नहीं हुआ तो इसका अधिकांश श्रेय उस जैन समाज को मिलना चाहिए जिसने इस ज्योति को प्रज्ज्वलित रखा और उदारतापूर्वक मूर्तिकारों, चित्रकारों तथा वास्तुकारों को संरक्षण प्रदान किया एवं उन्हें भव्य और पवित्र निर्माण-कार्यों में लगाये रखा। ऐसे निर्माण कार्यों में से एक उदाहरण रणकपुर स्थित वह धरणी-विहार है जिसका निर्माण बाद में १४३६ ई० में हआ था और जो चौलुक्य-निर्माण-शैली की श्रेष्ठता और उत्कृष्टता का एक तरह से सार ही है।
कृष्णदेव
1 [देखिए अभ्याय 28-संपादक.] 2 [सन् 1000 से 1300 ई० (अध्याय 22) की अवधि में मध्य भारत की स्थिति के अनुरूप ही, लेखक ने इस
अध्याय में अपने विषय को चोलुक्य-शैली के मंदिरों तक ही सीमित रखा है। मारवाड़ क्षेत्र के जैन मंदिरों के लिए देखिए-एम. ए. ढाकी, 'अर्ली जैन टेम्पल्स इन वेस्टनं इण्डिया', गोल्डेन जुबिली वॉल्यूम, श्री महावीर बन विद्यालय, खण्ड 1, बंबई, 1968, जिसमें निम्नलिखित मंदिरों का बहुत अच्छा विवेचन किया गया है। प्रोसियाघनेरामो (दोनों के लिए देखिए अध्याय 17) और वर्मन स्थित महावीर-मंदिर, पालि का नवलखा पार्श्वनाथमंदिर, सेवड़ी स्थित महावीर का मंदिर, नदलाइ का प्रादिनाथ-मंदिर, सादड़ी का पार्श्वनाथ-मंदिर तथा नादौल-प्राचीन नद्दुल, जहाँ चाहमान-वंश की एक शाखा की राजधानी थी--का मंदिर-समूह : इन सभी को ढाकी ने मारु-गुर्जर शैली का बताया है। इनमें से कुछ मंदिरों एवं कुछ अन्य मंदिरों का संक्षिप्त विवरण प्रोप्रेस रिपोर्ट स पॉफ़ दि प्रायॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ़ इण्डिया, 1908-09, तथा उससे मागे की रिपोर्टों में भी दिया गया है--संपादक.]
308
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org