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वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
बर्मा के पान स्थित नट ह्लाउंग क्याडंग विष्णु मंदिर में भी जैन सर्वतोभद्रिका को अपनाया गया है, अतः इस संदर्भ में यह जाँच-पड़ताल उपयोगी होगी कि क्या देश या विदेश इस प्रकार का कोई और भी हिन्दू मंदिर है जिसमें सर्वतोभद्रिका को अपनाया गया हो । प्रतिमा विज्ञान में कहीं-कहीं अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की अवधारणा ऐसी चतुर्मुख प्रतिमा में की गयी है जिनके चारों मुख चारों मुख्य दिशाओं में हैं । लेकिन इस अवधारणा को मात्र ऐसी प्रतिमा में ही रूपांतरित किया गया है। जिसके मात्र सम्मुख भाग पर ही प्राकृतियाँ अंकित हैं । फलतः उन तक पहुँचने के लिए सम्मुख द्वार की ही आवश्यकता होती है । अतः इस प्रकार के मूर्तिपरक कला-प्रतीक को हिन्दू प्रतिमा - शास्त्र में उस समानांतर भावार्थ में नहीं लिया जा सकता जिस भावार्थ में जैन सर्वतोभद्रिका को लिया जाता है । इस तथ्य की सोदाहरण व्याख्या के लिए हिन्दुनों के त्रिदेवों में सर्वप्रथम देव ब्रह्मा तथा विष्णु के वैकुण्ठ रूप का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें से ये प्रत्येक देव, मूर्तिपरक विवरणों के अनुसार, चार मुखवाले हैं लेकिन इनकी मूर्तियों का निर्माण केवल सम्मुख - दृश्य को ध्यान में रखकर हुआ है । इन दोनों देवों के मंदिर अल्प संख्या में ही ज्ञात हैं और उनमें एक ही प्रवेश द्वार है, जो सम्मुख दिशा में है । विष्णु के मंदिरों में खजुराहो ( मध्य प्रदेश) स्थित लक्ष्मण मंदिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिसमें वैकुण्ठ विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठित है । इस मंदिर में एक ही प्रवेश द्वार है जो मूर्ति की सम्मुख दिशा में है । यहाँ पर बह्मा का भी एक मंदिर है जिसमें चारों दिशाओं में चार द्वार दिखाई देते हैं, लेकिन तीन ओर के द्वार जालीदार प्रस्तर- फलकों से अवरुद्ध हैं; मात्र पूर्व दिशा का द्वार ही प्रवेश-द्वार है । एक ही ओर चारों मुँह उत्कीर्ण रहने वाली हिन्दू प्रतिमाओं के लिए ऐसे मंदिर की आवश्यकता नहीं है जिसके चार प्रवेश द्वार हों ।
जैन सर्वतोभद्रका का प्रतिबिंब हिन्दुत्रों के उस शिवलिंग में देखा जा सकता है जिसकी चारों सतहों पर चार मुखाकृतियाँ उत्कीर्ण हैं, जिन्हें सामान्यतः चतुर्मुख लिंग या चतुर्मुख महादेव के नाम से जाना जाता है । शिवलिंग की अवधारणा और अंकन योनि के आकार की रचना में स्थापित बेलनाकार शिश्न- प्रतीक के रूप में की गयी है । चतुर्मुख लिंग प्रतिमाओं का प्रचलन हिन्दुओं में अत्यंत प्राचीन काल से रहा है । अतः यह कहना कठिन है कि जैन सर्वतोभद्रिका या चतुर्मुख लिंग --इन दोनों में से किसकी अवधारणा प्राचीनतम है । परन्तु यह संदेह रहित है कि इन दोनों का वैचारिक आधार एक ही है । सादा एवं अलंकरणरहित बेलनाकार लिंग अथवा चतुर्मुख लिंग के लिए चारों ओर से प्रवेश-द्वारों की आवश्यकता की पूर्ति जैन सर्वतोभद्र-अभिकल्पना का मंदिर ही कर सकता है । भारत में सहस्रों की संख्या में शिव मंदिर हैं जिनमें उपास्य प्रतिमा के रूप में लिंग - प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जो या तो सादा हैं या फिर उनके चारों ओर चतुर्मुख प्रतिमाएँ अंकित हैं । इनमें से किसी-किसी मंदिर में ही एक से अधिक प्रवेश द्वार हैं । यहाँ तक कि नचना ( मध्य प्रदेश ) स्थित चतुर्मुख - महादेव मंदिर में भी एक ही प्रवेश द्वार है जो सम्मुख दिशा में है; जबकि इस मंदिर की प्रतिमा चतुर्मुखी है। खजुराहो स्थित मतंगेश्वर मंदिर में यद्यपि चारों दिशाओं में प्रवेश-द्वार दिखाई देते हैं किन्तु इसमें वस्तुतः एक ही प्रवेश द्वार है जो पूर्व दिशा में है ।
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