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अध्याय 21]
पूर्व भारत
कुछ धातु-निर्मित प्रतिमाएं कोणार्क (उड़ीसा) के निकटवर्ती ककतपुर से प्राप्त हुई हैं जो बारहवीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं । इन प्रतिमाओं में से कुछ कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में हैं
और कुछ आशुतोष संग्रहालय में । अधिकांशतः प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की हैं जो समरूप हैं, जिनके विषय में विशेष रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। यहाँ पर आशुतोष संग्रहालय में सुरक्षित तीर्थंकर चंद्रप्रभ की प्रतिमा (चित्र १६२ ख) का उल्लेख किया जा सकता है। तीर्थंकर कायोत्सर्गमुद्रा में एक पद्मपुष्प पर खड़े हैं जो एक वर्गाकार पादपीठ पर आधारित है। पादपीठ पर उनका लांछन अर्द्धचंद्र अंकित है। तीर्थंकर के शरीर का निष्क्रिय प्रतिरूपण तथा मुख-मण्डल पर भारी ऊँघ का अंकन मूर्ति-शैली में उनकी परिशेष स्थिति का अंतिम लाक्षणिक अंकन है।
निष्कर्ष
बंगाल, बिहार और उड़ीसा से प्राप्त जैन प्रतिमा-अवशेषों के पूर्वोक्त सर्वेक्षण से यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि हमारे विवेच्य कालखण्ड के अंतर्गत इस क्षेत्र में जैनों का योग, प्रांशिक महत्त्व का ही रहा है। सामान्य रूप से यह मान्य है कि पूर्व भारत में किसी समय जैन समाज एक महत्त्वपूर्ण समुदाय के रूप में विद्यमान था, जिसकी सम्मुन्नत अवस्था के प्रमाण हमें साहित्यिक साक्ष्यों एवं पुरातात्त्विक उपादानों में मिलते हैं। सातवीं शताब्दी के बाद ब्राह्मण धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण जैन धर्म इस क्षेत्र में क्रमश: अपना स्थान खोता चला गया। जैसा कि जैन अवशेषों के विश्लेषण से ज्ञात होता है इस काल में जैन समदाय बंगाल, बिहार, उडीसा के उपरांत उत्तरबिहार की पारसनाथ-पहाड़ी से लेकर दक्षिण के उड़ीसा-वर्ती समुद्रतट तक एक लंबी उपजाऊ भूमि की पट्टी के जनजातीय क्षेत्र में सीमित होकर रह गया ।
कुछ अपवादों को छोड़कर सभी जैन अवशेष उन स्थानों से प्राप्त हुए हैं जहाँ कभी जैन मंदिर या संस्थान आदि रहे थे। यह उल्लेखनीय है कि यह क्षेत्र बहुत लंबे समय से उन लोगों का निवास स्थान रहा है जिन्हें 'शराक' नाम से जाना जाता है। ये लोग कृषि पर निर्भर करते हैं तथा कट्टर रूप से अहिंसावादी हैं । आज इन लोगों ने हिन्दू धर्म अपना लिया है। रिसले ने अपनी पुस्तक 'ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बंगाल' में बताया है कि लोहरडागा के शराक आज भी पार्श्वनाथ को अपना एक विशेष देवता मानते हैं तथा यह भी मान्य है कि इस जनजाति का 'शराक' नाम श्रावक से बना है, जिसका अर्थ जैन धर्म के अनुयायी-गृहस्थ से है । ये पूर्वोक्त समस्त साक्ष्य संकेत देते हैं कि शराक मूलतः श्रावक थे; इस बात का समर्थन उनकी परंपराएँ भी करती हैं। इस सर्वेक्षण से यह भी ज्ञात होता है कि जैन धर्म पूर्व भारत में एक सुगठित समुदाय के रूप में रहा है जिसके संरक्षक शराकवंशीय मखिया होते थे। इनकी कृषि-अर्थ-व्यवस्था की समानता पश्चिम भारत की व्यावसायिक अर्थ-व्यवस्था से नहीं की जा सकती। पूर्व भारत के जैन समाज में कोई विमलशाह-जैसा राज्याधिकारी, तेजपाल-जैसा श्रेष्ठ
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