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'वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई.
[ भाग 5
दूसरे वर्ग की मूर्तियाँ विद्यादेवियों, शासन-देवताओं (यक्षों तथा यक्षियों), अन्य देवी-देवताओं तथा आवरण-देवताओं की हैं (चित्र १७४ क, ख, और १७५)। वे आलों में अंकित हैं या उनकी प्राकृतियाँ मंदिर की दीवारों के साथ हैं। वे या तो उकेरकर बनायी गयी हैं या पूर्ण अथवा मध्यम उद्धृति के रूप में हैं। देवताओं, जिनमें दिक्पाल भी हैं, की ये आकृतियाँ कम रीतिबद्ध हैं एवं अधिक स्वतंत्रतापूर्वक बनायी गयी हैं । सामान्यतया वे त्रिभंग-मुद्रा में खड़ी हैं या ललितासन में आसीन हैं। मानव-आकृतियों से भिन्न रूप में उनकी पहचान उनके विशिष्ट शिरोभूषा (जटा, किरीट या करण्ड-मकूट) या उनके वाहन या विशेष चिह्नों, जिन्हें वे सामान्यतः अपने दो से अधिक हाथों में धारण करते हैं, से होती है। अधिकतर देवता भी वही वेश धारण किये हुए हैं और वे ही अलंकार पहने हैं जो कि मानव-आकृतियाँ । मानवों से अलग उनकी पहचान उनके वक्षस्थल पर हीरक (यह चिह्न वैसा ही है जैसा कि विष्णु के वक्षस्थल पर कौस्तुभ-मणि और तीथंकर की प्रतिमाओं पर श्रीवत्स-लांछन या चिह्न) तथा एक लंबी माला से होती है, जो विष्णु की वैजयंती माला से मिलती-जुलती है। ये चिह्न खजुराहो के देवताओं के परिचय-चिह्न हैं।
___ तीसरी श्रेणी में वे अप्सराएं और सुर-सुंदरियाँ आती हैं (चित्र १७६) जिनकी सबसे सुंदर और सर्वाधिक मूर्तियाँ या तो उकेरकर या पूर्ण या मध्यम उद्भति के रूप में, जंघा पर के छोटे बालों में तथा स्तंभों पर या भीतरी छत के टोडों पर या मंदिर के भीतरी भाग के अर्ध-स्तंभों के बीच के अंतरालों पर बनायी गयी हैं । सुर-सुंदरियों को सर्वत्र सुंदर और पूर्णयौवना अप्सराओं के रूप में अंकित किया गया है। वे सुंदरतम रत्न और वस्त्र धारण किये हुए हैं एवं लुभावने हाव-भाव तथा सौंदर्य से युक्त हैं। अप्सराओं के रूप में उन्हें अंजलि-मुद्रा में या अन्य किसी मद्रा में दर्शाया गया है, या देवताओं को चढ़ाने के लिए कमल-पुष्प, दर्पण, जलकुंभ, वस्त्रालंकार, आभूषण आदि ले जाते हए अंकित किया गया है। किन्तु इन मुद्राओं से भी अधिक उन्हें मानवीय चित्त-वृत्तियों, संवेगों तथा क्रिया-कलापों में प्रस्तुत किया गया है और प्रायः उन्हें पारंपरिक नायिकाओं से भिन्न रूप में पहचान पाना कठिन होता है। इस प्रकार की अप्सराएं वस्त्र उतारती हुई, जमुहाई लेती हुई, पीठ खुजलाती हुई, अपने स्तनों को छूती हुई, अपने गीले बालों से पानी निचोड़ती हुई, काँटा निकालती हुई, बच्चे को खेलाती हुई, तोतों और बंदरों जैसे पालतू प्राणियों से खेलती हुई, पत्र लिखती हुई, वीणा या बंशी बजाती हुई, दीवारों पर चित्र बनाती हुई या अनेक प्रकार से अपने को सजाती हई (पैरों में पालता या आँखों में काजल आदि लगाती हई) दर्शायी गयी हैं।
चौथी श्रेणी में वे लौकिक मूर्तियाँ आती हैं जो जीवन के विविध वर्ग से संबंधित हैं। इनमे घरेल जीवन के दृश्य, जैसे गुरु और शिष्य, नर्तकियाँ और संगीतकार, तथा अत्यल्प मात्रा में कामुक जोड़ों का समूह सम्मिलित है।
पाँचवीं या अंतिम श्रेणी में पशुओं की आकृतियाँ आती है। इनमें व्याल (चित्र १७६) सम्मिलित है जो एक वैतालिक और पौराणिक पशु है। वह मुख्य रूप से सींगोंवाला सिंह है, जिसकी पीठ पर एक मानव सवार है एवं एक प्रतिपक्षी योद्धा उसपर पीछे से आक्रमण कर रहा है। इस मूलभूत
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