________________
अध्याय 20 ]
उत्तर भारत
था । यह भी संभव है कि मालवा - दक्खिन के स्थापत्य की परंपरा से संबंधित कुछ मंदिरों का प्रभाव किसी सीमा तक राजस्थान पर भी पड़ा हो। मूल राजस्थानी शैली भव्य, कल्याणकारी किन्तु संयत अलंकरण से युक्त तथा श्रेष्ठ कला कौशल संपन्न है । अनेक स्थलों पर तो मध्यकालीन मंदिरों में, विशेषकर उन मंदिरों में जिनका निर्माण प्रौढ़ चाहमान काल में हुआ, इन निर्माण-शैलियों का मोहक सम्मिलन देखा जा सकता है। इन शैलियों में सर्वाधिक प्रभावशाली शैली गुर्जर देश की भव्य अलंकरण-शैली सिद्ध हुई जो अपनी उद्गम भूमि से बहुत दूर मध्य देश तक पहुँच गयी, यद्यपि उसमें कुछ परिवर्तन भी हुआ । ढाकी' ने यह ठीक ही कहा है कि : दोनों ही शैलियाँ, महागुर्जर और महामारु, अधिक समय तक पृथक् और एक दूसरे से अप्रभावित नहीं रह सकीं। एकदम तो नहीं, किन्तु रसाकर्षण की धीमी पर निश्चित रूप से उन्नतिशील प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, दोनों शैलियों ने पहले तो विचारों का आदान-प्रदान किया और बाद में वे 'गहन परिणयआलिंगन' में बद्ध हो गयीं, जिसके फलस्वरूप वे एक दूसरे में समाहित होती गयीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी
"
प्रारंभ में एक पूर्णतः सम्मिलित प्रभावशाली, अत्यधिक अलंकृत, संकर किन्तु असाधारण रूप से मानकीकृत शैली -- मारु गुर्जर --- का प्रादुर्भाव हुआ । विशिष्ट रूप से इस नयी शैली में यत्र-तत्र स्थानीय स्वरूप भी झलकता था जिसमें कहीं तो महा-मारु और कहीं महा - गुर्जर शैली की विशेषताएँ अधिक उभरती थीं । यह शैली पश्चिम भारत के अधिकांश भाग में समान रूप से फैलती गयी ।"
चाहमान मंदिरों की सामान्य
विशेषताएँ इस प्रकार हैं: पंचरथ शिखर-युक्त गर्भगृह ( मूल प्रासाद), द्वार-मण्डप, प्राकार युक्त संलग्न मण्डप ( सामान्यत: बंद), स्तंभों से युक्त अंतःभाग जिसकी छतें ( वितान ) अलंकृत होती थीं, तथा प्रवेश मण्डप । कहीं-कहीं मंदिरों में तोरण या अलंकृत चौखटें भी हुआ करती थीं । चाहमान युग के जैन तोरण का एक उत्कृष्ट उदाहरण चौदहवें अध्याय में वर्णित प्रोसिया स्थित प्रसिद्ध महावीर मंदिर में देखा जा सकता है, जहाँ शिखरों की सज्जा छोटे-छोटे शृंगों के समूह से की गयी है जो कर्ण, भद्र ( केंद्रीय) तथा भवन के अन्य स्तरों से ऊपर उठे हुए हैं। जो भी हो, गर्भगृह के ऊपर अंग शिखरों से रहित एकाकी शिखरों के उदाहरण भी मिलते हैं । विभिन्न कटावदार स्थलों (जिनमें प्रक्षिप्त त्रिकोण - शीर्ष भी सम्मिलित हैं) से निर्मित शिखरों का अलंकरण अधिकांशतः भूमि विभाजनों तथा अंतर्ग्रथित अंकनों द्वारा किया गया है; विशेषकर उन शिखरों का जिनपर गुर्जर-निर्माण-कला की छाप है या ठीक-ठीक कहा जाये तो, जैसा कि ढाकी ने सुझाया है, उन शिखरों का जो कि मारु-गुर्जर शैली में बनाये गये हैं । किन्तु इस युग में विशुद्ध राजस्थानी शैली के नमूने अपनी संयत मूर्ति-सज्जा के साथ कदाचित् अधिक प्रभावशाली बने रहे। इनमें जंघा के ऊपर आधार-धारी हाथी, मानवमूर्ति पट्ट तथा दण्डछाद्य नहीं होते थे । भवनों तथा मण्डपों की छतों पर सुंदर संकेद्रित स्तरोंवाला उरेखन - युक्त आकर्षक विन्यास होता था । इन वर्गों के मंदिरों के स्तंभों को दो समूहों में बाँटा जा सकता है :
1 वही, पु311.
Jain Education International
245
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org