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अध्याय 20 ]
उत्तर भारत
मूति-निर्माण के लिए बलए पत्थर का सबसे अधिक प्रयोग किया गया है किन्तु अनेक स्थलों पर काले तथा श्वेत पाषाण को भी उपयोग में लाया गया। धातु की प्रतिमाएँ भी, विशेषकर कांस्य की, बनायी गयी थीं किन्तु वे अपेक्षाकृत छोटे या मध्यम आकार की थीं। लगभग ग्यारहवीं शताब्दी की एक जैन कांस्य प्रतिमा ( रेखाचित्र १६) १९२८ ई० में उत्तर-पूर्व बल्गारिया के केमला नामक स्थान पर पायी गयी थी।। यह प्रतिमा इस समय वहाँ के राजग्राद संग्रहालय में है। इस प्रतिमा में स्तर-युक्त पीठ पर अवस्थित एक सिंहासन पर तीर्थंकर को पद्मासन-मुद्रा में अंकित किया गया है। निस्संदेह यह उत्तर भारतीय मूल की है जिसे संभवत: अपनी दैनिक उपासना के लिए कोई जैन व्यापारी मध्यकाल में किसी मध्य-एशियाई या पश्चिम-एशियाई देश में ले गया होगा। शैली की दृष्टि से यह चाहमान-कला-परंपरा से संबद्ध प्रतीत होती है। हाल ही में तीर्थंकरों की कुछ सुंदर कांस्यप्रतिमाएँ राजस्थान के अलवर जिले में सनोली से भी उपलब्ध हुई थीं। इस युग की कुछ महत्त्वपूर्ण जैन कांस्य प्रतिमाएँ राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली के संग्रह में भी हैं। इनमें सम्मिलित हैं : गरुड़ पर आसीन चक्रेश्वरी की मूर्ति, एक जिन-बिंब के सुंदर परिकर का ऊपरी भाग जिसके साथ सुनिर्मित इतर देव, पशुओं और पौधों का अंकन किया गया है; तथा पार्श्वनाथ की एक तिथि-युक्त (१०६६ ई०) प्रतिमा, जिसमें तीर्थंकर पर सर्प के सात फणों का आच्छादन है। उनके दोनों ओर खड्गासन-मुद्रा में दो तीर्थंकर तथा यक्ष और यक्षी सहित अनुचरों की प्राकृतियाँ हैं । पार्श्वनाथ का उपधानयुक्त आसन परंपरागत कमलपुष्प पर बना है। पादपीठ के ऊपरी सिरे पर बनी नौ छोटी आकृतियों को नवग्रहों के रूप में पहचाना गया है। तीर्थंकर के वक्षस्थल तथा आसन पर श्रीवत्स (चिह्न) अंकित है। इस प्रतिमा के परिकर का ऊपरी भाग त्रिकोण है। इन कांस्य प्रतिमाओं का प्राप्ति-स्थान ज्ञात नहीं है किन्तु शैली की दृष्टि से ये राजस्थान की लगती हैं। वर्तमान संदर्भ में, एक छोटे आकार की कांस्य-प्रतिमा, जो मूलरूप से जैसलमेर की है, का भी यहाँ उल्लेख करना आवश्यक जान पड़ता है। शैली की दृष्टि से पूर्वचित राजग्राद संग्रहालय स्थित जिन-बिंब की पूर्वगामी लगनेवाली यह कांस्य प्रतिमा भी चल-पूजा-विग्रह लगती है । इसके पृष्ठभाग में उत्कीर्ण लेख (११२६-३८ ई०) में श्री-सिद्धसेनदिवाकराचार्य-गच्छ के श्री-नगेन्द्र-कुल की अम्मा और अच्छुप्ता नामक दो महिलाओं का उल्लेख है। उसमें अंकन इस प्रकार किया गया है--बीच में आसीन-मुद्रा में तीर्थंकर और उनके साथ चमरधारी, देवतागण, यक्ष और यक्षी तथा उपरी भाग में एक त्रिकोणाकार चौखटे में एक तीर्थंकर-प्रतिमा जो पाद-युक्त आसन पर आधारित है तथा जिसपर नौ शीर्ष बने हैं जो संभवत: नवग्रहों के प्रतीक हैं। अनुचरों में यक्ष मातंग और यक्षी सिद्धायिका हो सकते हैं क्योंकि वे क्रमशः हाथी और सिंह पर आरूढ़ हैं। शाह का विचार है कि ऊपरी भाग में तीर्थंकर की
1 ईस्ट एण्ड वेस्ट. 21. 3-4; 1971; 215-16. 2 इण्डियन प्रायॉलॉजी, 1969-70 : ए रिव्यू. 1973.नई दिल्ली. पृ 61. 3 जर्नल मॉफ दि प्रोरिएण्टल इंस्टिट्यूट. 19, 3; 1970; 276. 4 जर्नल ऑफ दि इण्डियन सोसायटी प्रॉफ प्रोरियण्टल आर्ट. 1; 1966% 29
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